( प्रेमघन की छाया स्मृति )- [ रामचन्द्र शुक्ल ]- गद्य खण्ड- अंतरा- Summary
Introduction
यह पाठ रामचन्द्र शुक्ल जी का एक संस्मरणात्मक निबंध है |
इस निबंध में शुक्ल जी ने हिंदी भाषा और साहित्य के प्रति अपने शुरुआत के रुझानों का वर्णन किया है |
शुक्ल जी ने अपने परिवार के बारे में बताया है और अपनी मित्र मण्डली के बारे में बताया |
अंत में उन्होंने बताया की प्रेमघन के सम्पर्क में आने से शुक्ल जी का जीवन किस प्रकार बदला |
Main characters
लेखक- रामचंद्र शुक्ल जी स्वयं
लेखक के पिता
लेखक की मित्रमंडली
उपाध्याय बद्रीनारायण चौधरी
लेखक के पिता की विशेषताएं
फ़ारसी भाषा के अच्छे ज्ञाता
पुरानी हिंदी कविताओं के प्रेमी
फारसी कवियों की उक्तियों को हिंदी कवियों की उक्तियों के साथ मिलाने में उन्हें आनंद आता था |
वे रात को घर के सब लोगों को इकट्ठा करके रामचरितमानस और रामचन्द्रिका पढ़कर सुनाया करते थे |
भारतेंदु जी के नाटक उन्हें बहुत अच्छे लगते थे |
लेखक के मन की भावना
बचपन में लेखक के मन में एक अजीब से भावना रहती थी, लेखक 'सत्य हरिश्चन्द्र' नाटक के नायक राजा
हरिश्चन्द्र को तथा लेखक भारतेंदु हरिश्चन्द्र को एक ही समझता था |
इसी कारण लेखक के मन में भारतेंदु जी के प्रति अपने मन में एक मधुर भावना जगी रहती थी
लेखक के पिता का तबादला
जब आचार्य रामचन्द्र शुक्ल आठ वर्ष के थे , तब उनके पिता का तबादला राठ तहसील से मिर्जापुर हो गया , तब उन्हें
यह पता चला की भारतेंदु मंडल के सुप्रसिद्ध कवि उपाध्याय बद्रीनारायण चौधरी 'प्रेमघन' भी वहीं पास में ही रहते हैं |
तब शुक्ल जी के मन में प्रेमघन के दर्शन करने की इच्छा जागृत हुई |
उपाध्याय बद्रीनारायण चौधरी 'प्रेमघन' की पहली झलक
जब शुक्ल जी के मन में प्रेमघन जी के दर्शन करने की इच्छा जागृत हुई उसके बाद वे अपने साथियों और मित्रों
की मण्डली के साथ डेढ़ मील का सफ़र तय करके चौधरी साहब के मार्केन के सामने जा पहुंचे |
ऊपर का बरामदा सघन लताओं के जाल से ढका हुआ था, बीच बीच में खम्बे और खाली जगह थी
काफी देर इंतजार करने के बाद उन्हें चौधरी साहब की एक झलक दिखाई दी और उनकी झलक कुछ इस प्रकार थी
की उनके बाल बिखरे थे तथा एक हाथ खम्बे पर था |
कुछ ही देर बाद यह दृश्य आँखों से ओझल होने लगा |
और यही उपाध्याय बद्रीनारायण चौधरी की पहली झलक थी |
उपाध्याय बद्रीनारायण चौधरी 'प्रेमघन' के व्यक्तित्व की विशेषताएं
चौधरी साहब लम्बे लम्बे घने बाल रखते थे जो की उनके दोनों कंधों पर बिखरे रहते थे |
चौधरी साहब भारतेंदु मंडल के प्रसिद्ध कवि थे, और वे पुराने एवं प्रतिष्ठित कवियों में से एक थे |
उनके रहन सहन और व्यवहार से उनकी रईसी प्रकट होती थी |
उनके संवाद सुनने लायक होते थे, और उनकी बातचीत का अंदाज़ निराला था |
चौधरी सहाब विलक्षण प्रतिभा के धनी थे।
उन्हें होली, वसंत पंचमी आदि त्यौहार मानाने का खूब शौक था इसलिए उनके यहाँ हर त्यौहार पर नाच गाना और
उत्सव हुआ करते थे |
वे नौकरों के साथ भी सम्मानजनक व्यवहार करते थे |
लेखक का हिंदी साहित्य के प्रति झुकाव
लेखक के पिता बहुत बड़े विद्वान थे, इसलिए बचपन से ही उनके घर का माहोन काफी साहित्यिक था एवं इसका
उनपर प्रभाव था।
इसलिए लेखक की बचपन से ही साहित्य में रुचि बढती चली गई, बचपन से ही लेखक ने अपने पिता से
रामचरितमानस और रामचन्द्रिका को ध्यानपूर्वक सुना था |
उनके पिता उन्हें भारतेंदु हरिश्चन्द्र के नाटक भी पढ़ कर सुनाया करते थे, जिससे लेखक के मन में उनके लिए
अपूर्व भावनाएं पैदा हो गयी थी |
लेखक की साहित्यकारों के प्रति अटूट श्रद्धा थी, लेखक पंडित केदारनाथ जी पाठक के पुस्तकालय से लाकर
पुस्तकों को पढ़ा करते थे |
भारतेंदु जी के मकान के दर्शन
लेखक एक बार किसी में बारात में शामिल होने काशी गए थे, वहां घूमते हुए उन्होंने पंडित केदारनाथ जी को एक
घर से निकलते देखा |
जब उन्हें पता चला की यह मकान भारतेंदु जी का है तो शुक्ल जी बड़े प्रेम से उस मकान को देखने लगे और
निहारने लगे
यह उत्सुकता देख कर पाठक जी बहुत खुश हुए और लेखक और उनके बीच अच्छी दोस्ती हो गयी |
लेखक की मण्डली
लेखक ने 16 वर्ष की आयु में हिंदी प्रेमियों की एक मण्डली बनाई जिसमे- श्रीमान काशीप्रसाद जी जायसवाल
बा.भगवान दास जी, पंडित बद्रीनारायण गौड़ और उमाशंकर द्विवेदी जी शामिल थे |
लेखक जिस स्थान पर रहता था, वहां अधिकतर वकील, मुख्तार, और कचहरी के अफसरों की बस्ती थी,
लेखक की मण्डली में बात चीत हिंदी में हुआ करती थी |
लेकिन बस्ती के लोग उर्दू बोला करते थे इसलिए उन्हें वो बोली अनोखी लगती थी और उन्होंने इस मण्डली का
नाम 'निसंदेह' रख दिया |