[ सत्य -विष्णु खरे ] - ( काव्य खण्ड हिंदी ) अंतरा- व्याख्या

[ सत्य -विष्णु खरे ] - ( काव्य खण्ड हिंदी ) अंतरा- व्याख्या

( कविता- सत्य- विष्णु खरे व्याख्या )

[ Summary ]

  • इस कविता में है कवि ने महाभारत के पात्रों का उदाहरण देते हुए, सत्य के महत्व के बारे में समझाया है !
  • जब हम सत्य को पुकारते हैं, तो वह और दूर हो जाता है, जैसे युधिष्ठिर के सामने से भागे थे विदुर ( यह दोनों महाभारत के पात्र हैं) !
  • सत्य शायद जानना चाहता है, उसके पीछे हम कितनी दूर तक भाग सकते हैं !

जब हम सत्य को पुकारते हैं 
तो वह हमसे परे हटता जाता है 
जैसे गुहारते हुए युधिष्ठिर के सामने से 
भागे थे विदुर और भी घने जंगलों में

व्याख्या- 1

  • विदुर और युधिष्ठिर महाभारत के दो पात्र हैं !
  • सत्य ( सच) यह जानना चाहता है की हम उसके पीछे की तरह भटक सकते हैं !
  • कवि कहता है सत्य केवल पुकारने से प्राप्त नहीं होता सत्य को प्राप्त करने के लिए कठोर तप करना पड़ता है !
  • कविता में विदुर सत्य के प्रतीक है !
  • और युधिष्ठिर सत्य के प्रति निष्ठावान व्यक्ति के प्रतिक है !
  • सत्य को पाने के लिए युधिष्ठिर विदुर को पुकार रहे हैं !
  • विदुर सत्या का पालन करने वाले माने जाते थे, परंतु पांडवों के साथ हुए अन्याय का उन्होंने विरोध नहीं किया और जब सत्य का पालन करने वाला ऐसा व्यक्ति ऐसे काम करें तो फिर वह मुंह छुपाए फिरता है !

सत्य शायद जाना चाहता है 
कि उसके पीछे हम कितनी दूर तक भटक सकते हैं 
कभी दिखता है सत्य 
और कभी ओझल हो जाता है 
और हम कहते रह जाते हैं कि रुको यह हम हैं 
जैसे धर्मराज के बार-बार दुहाई देने पर 
कि ठहरिए स्वामी विदुर 
यह मैं हूं आपका सेवक कुंतीनंदन युधिष्ठिर
वह नहीं ठिठकते

व्याख्या- 2

  • जब युधिष्ठिर विदुर से मिलने आते हैं तो वह अपना मुंह छिपाकर जंगल की तरफ भाग जाते हैं !
  • सच यह जानना चाहते हैं की हम उसके पीछे कितनी दूर तक जा सकते हैं !
  • सच हमारी परीक्षा लेता है और वह देखना चाहता है कि हम उसके प्रति कितने निष्ठावान हैं !
  • जब युधिष्ठिर विदुर को बार-बार आवाज लगाते हैं और कहते हैं कि रुकिए ठहरिये मैं आपका सेवक हूं '' लेकिन विदुर को कोई फर्क नहीं पड़ता और वह थोड़ा सा भी रुक कर पीछे नहीं देखते !
  • इसलिए इस उदाहरण के माध्यम से कवि ने यह समझाने का प्रयास किया,, कि जब हम सत्य को जानना चाहते हैं तो वो ओझल होकर हमारी परीक्षा लेता है !

यदि हम किसी तरह युधिष्ठिर जैसा संकल्प पा जाते हैं 
तो एक दिन पता नहीं क्या सोचकर रूक ही जाता है  सत्य 
लेकिन पलट कर सिर्फ खड़ा ही रहता है  वह दृढ़निश्ची 
अपनी कहीं और देखते दृष्टि से हमारी आंखों में देखता हुआ 
अंतिम बार देखता-सा लगता है  वह हमें 
और उसमें से उसी का हल्का सा प्रकाश जैसा आकार 
समा जाता है हममें

व्याख्या- 3

  • महाराज युधिष्ठिर विदुर को ढूंढ रहे थे और उनसे मिलना चाहते थे, और जब उन्हें पता चलता है की विदुर एक जंगल में तपस्या कर रहे हैं तो वे वही जाते हैं !
  • उन्हें पहचान लेते हैं, परंतु जब वे उन्हें पुकारते हैं और कहते हैं में कुंतीपुत्र हूं आपसे मिलना चाहता हूं !
  • तो वे जंगलों की तरफ भाग जाते हैं, कभी दिखते हैं और कभी छुप जाते हैं !
  • लेकिन युधिष्ठिर उनके पीछे-पीछे उन्हें खोजता रहता है !
  • और एक समय ऐसा आता है कि विदुर रुक ही जाते हैं और उन से आंखें मिलाकर उन्हें देखने लगते हैं !
  • इससे कभी नहीं यह बताना चाहा है की हमें खुद को इतना काबिल बनाना चाहिए कि हम सच को देख सकें !
  • और हम सच को अपने अंदर समा सके !

जैसे शमी वृक्ष के तने से  टिक्कर
ना पहचानने में पहचानते हुए विदुर ने धर्मराज को 
निर्निमेष देखा था  अंतिम बार
और उनमें से उनका आलोक धीरे-धीरे आगे बढ़कर 
मिल गया था युधिष्ठिर में 
सिर झुकाए निराश लौटते हैं हम 
कि सत्य अंत तक हमसे कुछ नहीं बोला
हां हमने उसके आकार से निकलता व प्रकाश पुंज देखा था 
हम तक आता हुआ 
वह हममें विलीन हुआ या हमसे होता हुआ आगे बढ़ गया

व्याख्या- 4

  • समी के पेड़ के तने से टीक कर वे अनजान बनते हुए, उनकी आंखों में देख रहे थे और उन्होंने एक बार भी आंख नहीं झपकाईं !
  • यह सब आखरी बार हो रहा था, क्योंकि इसके बाद उन्होंने प्राण त्याग दिए थे और उनका तेज युधिष्ठिर में मिल गया था क्योंकि वह उन्हें पहचान गए थे !
  • और विदुर का आलोक ( प्रकाश ) धीरे-धीरे युधिष्ठिर में मिल गया !
  • युधिष्ठिर के भीतर सत्य समां गया क्योंकि युधिष्ठिर मैं मिल गया !
  • युधिष्ठिर के भीतर सत्य समां गया क्योंकि, युधिष्ठिर मुझको पहचान गए थे लेकिन अगर हम सत्य को पहचान नहीं पाएंगे तो हमें निराशा हाथ लगी और दु:ख होगा !
  • सत्य कभी भी बोलता नहीं है, सत्या को अपनी अंतरात्मा से पहचानना पड़ता है और आत्मा ही केवल उसे जगा सकती है !
  • अगर हम सत्या को पहचान लेते हैं तो वो हमारे भीतर समां जाता है लेकिन अगर हम उसे पहचान नहीं पाते तो वह हमसे होता हुआ आगे चल जाता है !

हम कह नहीं सकते 
ना तो हमें कोई स्फुरन हुआ और न ही कोई ज्वर 
किंतु शेष सारे जीवन हम सोचते रह जाते हैं 
कैसे जाने कि सत्य का वह प्रतिबिंब हममें समाया या नहीं 
हमारी आत्मा में जो कभी-कभी दमक उठता है 
क्या वह उसी की छुअन है 
जैसे 

विदुर कहना चाहते तो वही बता सकते थे 
सोचा होगा माथे के साथ अपना मुकुट  नीचा किए
युधिष्ठिर ने
खांडवप्रस्थ से इंद्रप्रस्थ लौटते हुए

व्याख्या- 5

  • कवि बताते हैं कि जब सत्या के भीतर प्रकाश जैसा हमारे पास आता है तब हम नहीं कह पाते कि वह सच का प्रकार हमारे भीतर गया भी कि नहीं !
  • क्योंकि ना तो हमारे भीतर कोई हलचल हुई और ना ही हमने कुछ ऐसा महसूस किया, इसका अर्थ है कि सत्य की पहचान आत्मा के द्वारा ही की जा सकती है !
  • युधिष्ठिर सत्य को पहचान गए थे और सत्य को उन्होंने पा लिया क्योंकि उन्होंने सत्य को पाने के लिए लगातार संघर्ष किया !
  • और अब युधिष्ठिर अपने घर वापस लौट गए थे !
  • इन पंक्तियों में हमें यह पता चलता है कि सत्य कड़वा होता है और कठोर होता है सत्य के लिए मन में निष्ठा होनी चाहिए !

[ विशेष ]

1) इस कविता में कवि ने सत्या के बारे में महाभारत के पात्रों का उदाहरण देते हुए वर्णन किया है।
2) इस कविता में कवि ने खड़ी बोली का सुंदर प्रयोग किया है।
3) यह एक छंद मुक्त कविता है।
4) कविता की भाषा तत्सम प्रधान है।

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