जाति, धर्म और लैंगिक मसले- ( Gender Religion and Caste) Class - 10th ( Pol. Science- Civics ) Chapter - 4 Notes In Hindi

जाति, धर्म और लैंगिक मसले- ( Gender Religion and Caste)  Class - 10th ( Pol. Science- Civics  ) Chapter - 4  Notes In Hindi

लैंगिक असमानता क्या है ?

हमारे समाज में महिलाओं के साथ जो भेदभाव होता है 
वह एक प्रकार से लैंगिक असमानता का ही उदाहरण है
भारतीय समाज पितृसत्तात्मक समाज है
इस समाज में पुरुषों को महिलाओं के मुकाबले अधिक महत्व दिया जाता है
यह भेदभाव परिवार से ही शुरू हो जाता है
और समाज में पूर्ण रूप से देखने को मिलता है

समाज में निजी और सार्वजनिक का विभाजन ?

( 1- बाहर के काम )
( 2- घर के काम )

लड़के और लड़कियों के बीच में भेदभाव परिवार में ही प्रारंभ हो जाता है
इन के पालन पोषण के दौरान यह बात मन में बिठा दी जाती है कि
औरतों का काम है घर, गृहस्थी चलाना तथा बच्चों का लालन पोषण करना
परिवारों में औरतें घर का सारा काम देखती हैं 
जैसे - खाना बनाना, कपड़े धोना, सफाई करना, बच्चों की देखभाल करना 
पुरुष भी घर के सभी काम कर सकते हैं 
लेकिन पुरुष ऐसा सोचते हैं कि ऐसे कामों को औरत के जिम्मे ही छोड़ना चाहिए
जिन कामों को मर्द अपने घरों में नहीं करते हैं
इन्हीं कामों को घर के बाहर पैसे मिलने पर पुरुष खुशी से कर लेते हैं
जैसे - 
सिलाई ,कटाई करना, होटल में खाना बनाना, साफ सफाई करना इत्यादि
महिलाएं अपने घरों पर तथा घरों के बाहर भी मेहनत का काम करती हैं
लेकिन उनके इस कार्य को अधिक महत्व नहीं दिया जाता 
इनके कार्य को मूल्यवान नहीं माना जाता
नगरों में ऐसे कई उदाहरण देखने को मिलते हैं जहां कोई गरीब स्त्री किसी
मध्यमवर्गीय परिवार के घर में नौकरानी का कार्य करती है 
और उस मध्यमवर्गीय परिवार की महिला किसी दफ्तर में कार्य करती है
लेकिन इतनी मेहनत के बाद भी इनके कार्य को अधिक महत्व नहीं दिया जाता
इस प्रकार से कार्य का भेदभाव पूर्ण विभाजन किया गया है
जिसका असर यह हुआ की स्त्री घर की चारदीवारी तक ही सिमट के रह गई
पुरुष बाहर के सार्वजनिक जीवन के कार्यों पर कब्जा हो गया
महिलाओं की एक बड़ी जनसंख्या होने के बाद भी 
सार्वजनिक जीवन में 
राजनीति में 
समाज में 
महिलाओं को उचित स्थान नहीं प्राप्त हो पाया है

नारीवादी आंदोलन क्या है ?

दुनिया के विभिन्न समाजों में महिलाओं के साथ इस तरीके का भेदभाव देखने को मिलता है
पहले सिर्फ पुरुषों को ही बाहर के कार्य करने, चुनाव लड़ने, वोट देने की अनुमति थी
लेकिन धीरे-धीरे महिलाओं के अधिकार को लेकर आवाजें उठने लगी
दुनिया के विभिन्न हिस्सों में महिलाओं के संगठन बनाए गए
अधिकारों की मांग को लेकर कई आंदोलन हुए
इनके दबाव में विभिन्न देशों ने महिलाओं को भी वोट देने का अधिकार दिया
महिलाओं को चुनाव में कुछ सीटों पर आरक्षण भी प्रदान किया गया
उनके लिए शिक्षा तथा रोजगार के क्षेत्र में कार्य हुए
इन महिला आंदोलनों ने परिवार में भी बराबरी की मांग उठाई
ऐसे आंदोलनों को नारीवादी आंदोलन कहा जाता है
धीरे-धीरे समाज में परिवर्तन आया
महिलाओं को महत्व दिया जाने लगा है।
आज महिलाएं विभिन्न क्षेत्रों में बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रही हैं 
महिलाएं वैज्ञानिक, डॉक्टर, टीचर ,इंजीनियर , खेल 
तथा अन्य कई क्षेत्रों में कामयाबी पा चुकी है
दुनिया के कुछ देशों में महिलाओं की स्थिति अच्छी है –
 नॉर्वे, स्वीडन, फिनलैंड आदि

भारत में महिलाओं की स्थिति ?

महिलाओं की साक्षरता दर मात्र 54%
पुरुष की साक्षरता दर 76%
ऊंची तनख्वाह वाले पद पर महिलाओं की मौजूदगी कम है
महिलाओं को पुरुषों के मुकाबले विभिन्न क्षेत्रों में कार्य करने पर कम मजदूरी मिलती है
भारत में औसतन एक पुरुष के मुकाबले एक महिला ज्यादा घंटों तक काम करती है
लेकिन फिर भी उसके कार्य को इतना मूल्यवान नहीं माना जाता
भारत में लड़कों को लड़कियों की अपेक्षा अधिक महत्व दिया जाता है
इसी कारण भ्रूण हत्या भी कर दी जाती है
लिंग अनुपात में लड़कियों की संख्या गिर रही है
भारत में कई जगह पर लिंग अनुपात 800 से भी नीचे चला गया है
महिलाओं के साथ घरेलू हिंसा मारपीट के मुद्दे अधिक होते हैं
भारतीय समाज में दहेज प्रथा भी एक बड़ी समस्या है 
जो महिलाओं का शोषण करती है

महिलाओं का राजनीति में प्रतिनिधित्व ?

( नारीवादी ऐसा मानते हैं )
महिलाओं के साथ होने वाला भेदभाव तब तक समाप्त नहीं हो सकता 
जब तक महिलाओं का सत्ता पर नियंत्रण नहीं होगा
इसका तरीका यही है कि जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों में महिलाओं की संख्या बढ़ाई जाए
भारत की संसद में तथा भारत की विधानसभाओं में महिला नेताओं की संख्या बहुत कम है
लोकसभा में महिला सांसद 10% से भी कम है
राज्यों की विधानसभाओं में महिला विधायकों की संख्या 5% से भी कम है
भारत इस मामले में दुनिया के बहुत सारे विकासशील देशों से भी पीछे है
अगर कोई भारतीय महिला प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंच भी जाए
तो उनके मंत्रिमंडल में पुरुषों का ही वर्चस्व रहता है
महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने के लिए भारत में पंचायती राज के अंतर्गत आरक्षण की व्यवस्था की गई
स्थानीय सरकार पंचायत और नगरपालिका में महिलाओं के लिए एक तिहाई सीटें आरक्षित की गई है
महिला संगठनों ने मांग की है कि लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं में भी महिलाओं को एक तिहाई सीटों पर आरक्षण देना चाहिए
लेकिन यह मामला वर्षों से लंबित पड़ा है

धर्म, सांप्रदायिकता और राजनीति ?

भारत में विभिन्न धर्मों को मानने वाले लोग रहते हैं
इसमें विभिन्न धर्मों के लोगों के बीच में आपसी मतभेद भी हो जाते हैं
और ऐसे मतभेद कभी कभी एक ही धर्म के लोगों के बीच में भी हो जाते हैं
महात्मा गांधी ने धर्म को नैतिक मूल्यों से जोड़कर देखा
भारत देश में मानव अधिकार समूह ने कहा है कि देश में सांप्रदायिक दंगों में अधिकतर अल्पसंख्यक लोग मारे जाते हैं 
सरकार को अल्पसंख्यकों के रक्षा के लिए विशेष कदम उठाने चाहिए
( सांप्रदायिकता )
अपने धर्म को सर्वश्रेष्ठ मानना और दूसरे के धर्म से नफरत करना सांप्रदायिकता कहलाता है
यह समस्या तब शुरू होती है जब राजनीति में धर्म अपना दबदबा बनाने लगता है
क्योंकि किसी भी देश में अन्य धर्मों के लोग भी रहते हैं
ऐसे में जो समुदाय बहुसंख्यक है वह अपने धर्म को श्रेष्ठ मानते हुए दूसरे धर्म के खिलाफ मांगे या विरोध करने लगते हैं
जब सरकार अपनी सत्ता का इस्तेमाल किसी एक धर्म के पक्ष में करने लगती है ऐसे में स्थिति खराब होने लगती है
यदि राजनीति सांप्रदायिक सोच पर आधारित होती है 
तो इससे विभिन्न समुदायों के बीच मतभेद होने लगते हैं
यदि सांप्रदायिक राजनीति होगी तो अलग-अलग धर्मों के लोगों के हित अलग-अलग होंगे
इससे विभिन्न समुदायों के बीच में टकराव बढ़ेगा
दूसरे धर्म के लोग एक ही देश में समान नागरिक की तरह नहीं रह सकेंगे 
एक धर्म के लोगों का वर्चस्व होने लगेगा 
या फिर उनके लिए अलग राष्ट्र भी बनाना पड़ सकता है
सांप्रदायिक सोच सदैव अपने धार्मिक समुदाय को राजनीतिक प्रभुत्व दिलाने की कोशिश करती है
इसके लिए राजनीतिक रूप से तथा धर्म गुरुओं के द्वारा भावनात्मक अपील भी महत्वपूर्ण होती है
चुनावी राजनीति में एक धर्म के मतदाताओं की भावना तथा उनके हितों की बात उठाने जैसे तरीके अपनाए जाते हैं
कई बार सांप्रदायिकता के कारण विभिन्न संप्रदाय के लोगों के बीच में हिंसा तथा दंगे हो जाते हैं
( धर्मनिरपेक्ष आसन )
भारत एक विशाल देश है यंहा सभी धर्मों को मानने वाले लोग रहते हैं
ऐसे में सांप्रदायिकता भारत के लिए एक चुनौती थी
हमारे संविधान निर्माताओं ने इस चुनौती को समझा 
और भारत को धर्मनिरपेक्ष राज्य बनाया
भारत का कोई भी राजकीय धर्म नहीं है
Ex - श्रीलंका - बौद्ध धर्म        पाकिस्तान – इस्लाम
भारत का संविधान किसी धर्म को विशेष दर्जा नहीं देता
हमारे संविधान के अनुसार कोई भी नागरिक कोई भी धर्म अपना सकता है
नागरिक अपने धर्म का प्रचार कर सकते हैं
धर्म के आधार पर किसी प्रकार का कोई भेदभाव नहीं होगा
शासन धार्मिक मामलों में दखल नहीं देता है

जाति और राजनीति ?

( जातिगत असमानताएं )
भारतीय समाज में जातिगत विभाजन देखने को मिलता है
जाति व्यवस्था भारत में बहुत प्राचीन समय से है
जाति एक स्थाई संस्था है
एक जाति समूह के लोग एक या फिर मिलते जुलते पेशे से संबंधित होते हैं 
विवाह में जाति का बहुत महत्व होता है 
लोग अपनी ही जाति में विवाह करते हैं
( वर्ण व्यवस्था )
भारतीय समाज में वर्ण व्यवस्था का बहुत महत्व है
समाज मुख्यतः चार वर्णों में बटा हुआ था
ब्राह्मण,  क्षत्रिय,  वैश्य, शूद्र
इन सभी के कार्य अलग-अलग थे
समाज में जातिगत भेदभाव थेकुछ जातियों को उच्च जाति माना जाता था
कुछ जातियों को निम्न जाति माना जाता था
निम्न जातियों के लोगों को छुआछूत का शिकार होना पड़ता था
नीची जाति के लोगों का घर अलग होते थे
उन्हें समाज में कई कार्यों को करने की अनुमति नहीं थी
ज्फूयोतिबा फुले , महात्मा गांधी ,डॉक्टर भीमराव अंबेडकर और पेरियार रामास्वामी नायकर 
जैसे राजनेताओं तथा समाज सुधारकों ने जातिगत भेदभाव से मुक्त समाज बनाने की बात की
इन महापुरुषों के प्रयासों से भारत में जाति व्यवस्था में बदलाव आया
आर्थिक विकास साक्षरता शहरीकरण रोजगार चुनने की आजादी इन सब व्यवस्थाओं से जाति व्यवस्था का पुराना स्वरूप बदला है
शहरों में अब कोई इस बात पर ध्यान नहीं देता कि बस या ट्रेन में उनके साथ कौन बैठा है 
पड़ोस में भी ऐसे भेदभाव कम हो गए हैं
भोजनालय में भी लोग साथ बैठकर एक ही मेज पर खाना खाते हैं बिना जातिगत भेदभाव के
संविधान ने भी जातिगत भेदभाव को समाप्त किया है
अनुच्छेद 17 के तहत अस्पृश्यता की समाप्ति की गई है
परंतु ग्रामीण क्षेत्रों में अगर देखें तो जातिप्रथा आज भी विद्यमान है
कई क्षेत्रों में आज भी लोग अपनी जात या कबीले में ही शादी करते हैं
छुआछूत की प्रथा अभी पूरी तरह से समाप्त नहीं हुई है
आज भी कई क्षेत्रों में दलित समुदाय के लोग दबे कुचले वर्ग में है
आजादी के 70 साल के बाद भी कुछ जातियां पूरी तरह से शिक्षित नहीं हो पाई है

राजनीति में जाति ?

भारतीय समाज जाति में विभाजित है
एक जाति के लोगों के हित एक जैसे होते है 
उनके हित दूसरी जाति के लोगों से मेल नहीं खाते
लोग जातियों में एक भावनात्मक रूप से भी बंधे  हैं
जाति राजनीति में एक दबाव समूह का कार्य करती है
जब भी कोई राजनीतिक पार्टी चुनाव के लिए उम्मीदवारों की लिस्ट बनाती है
उस समय चुनाव क्षेत्र के मतदाताओं की जाति के अनुसार टिकट देती है
जब राजनीतिक दल सरकार बनाते हैं 
तो उस समय इस बात का ध्यान रखते हैं 
कि विभिन्न जाति और कबीले को लोगों को उचित जगह दी जाए
नेता चुनाव जीतने के लिए जातिगत भावनाओं को उकसाते हैं
कुछ राजनीतिक दल कुछ विशेष जातियों के लिए मददगार के रूप में देखे जाते हैं
जिस क्षेत्र में एक ही जाति के लोगों की संख्या ज्यादा है 
उस क्षेत्र में उस जाति के प्रतिनिधि के लिए चुनाव जीतना थोड़ा आसान हो जाता है
लेकिन इस बात का भी ध्यान रखना जरूरी है 
कि किसी भी संसदीय चुनाव क्षेत्र में किसी एक जाति के लोगों को बहुमत नहीं है
इसलिए हर पार्टी और उम्मीदवार को चुनाव जीतने के लिए 
एक जाति और एक समुदाय से ज्यादा लोगों का भरोसा जीतना जरूरी है
कोई भी व्यक्ति एक जातीय समुदाय के सभी लोगों का वोट हासिल नहीं कर सकते
अगर किसी चुनाव क्षेत्र में एक ही जाति के लोगों का वर्चस्व है
तो ऐसे में अनेकों पार्टी उसी जाति के उम्मीदवार को चुनाव में खड़ा करते हैं

जाति के अंदर राजनीति ?

जाति राजनीति ग्रस्त होती जा रही है
हर जाति खुद को बड़ा बनाना चाहती है
ऐसे में जातियां अपनी अन्य उपजातियों को भी अपने साथ लाने का प्रयास करती हैं
क्योंकि एक जाति सत्ता में अपने दम पर कभी भी नहीं आ सकती
इसलिए ज्यादा राजनीतिक ताकत पाने के लिए दूसरी जातियों तथा समुदायों को साथ लाने का प्रयास किया जाता है
इस प्रकार से जाती राजनीति में कई तरह के मुख्य भूमिकाएं निभाते हैं
राजनीतिक पार्टियां वोट पाने के लिए सामाजिक समूह और समुदायों को अपनी ओर करने का प्रयास करती हैं
सिर्फ जाति आधारित राजनीति लोकतंत्र के लिए सही नहीं होती
इससे अवसर गरीबी, विकास, भ्रष्टाचार जैसे मुद्दे से लोगों का ध्यान भटकता है
कई बार जातिवाद के कारण तनाव, टकराव, हिंसा जैसी घटनाएं होती हैं

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