History class 12th- विचारक, विश्वास और इमारतें- Thinkers, beliefs, and builders Chapter 4th

History class 12th- विचारक, विश्वास और इमारतें- Thinkers, beliefs, and builders Chapter 4th

सांची की एक झलक

सांची का स्तूप

सांची का स्तूप बौद्ध धर्म से संबंधित एक महत्वपूर्ण साक्ष्य है.

19वीं सदी मैं यूरोपियों ने सांची के स्तूप में अपनी दिलचस्पी दिखाई.
फ्रांसीसी भी सांची के स्तूप को देखकर मोहित हो गए थे.
अंग्रेज तथा फ्रांसीसी दोनों ही सांची के तोरणद्वार को ले जाना चाहते थे.
फ्रांसीसी ने तो तोरणद्वार को फ्रांस के संग्रहालय में ले जाने के लिए शाहजहां बेगम से इजाजत मांगी.
लेकिन बड़ी ही सावधानी से इन तोरणद्वार की प्लास्टर प्रतिकृति बनाई गई.
और अंग्रेज तथा फ्रांसीसी दोनों ही इससे संतुष्ट हो गए.
इस कारण मूल कृति भोपाल राज्य में अपनी ही जगह रह गई.

भोपाल के शासक शाहजहां बेगम

भोपाल के शासक शाहजहां बेगम और उनकी उत्तराधिकारी सुल्तान जहां बेगम ने इस
प्राचीन स्थल के रखरखाव के लिए धन ( money ) अनुदान दिया.

जॉन मार्शेल ने सांची के महत्व को समझा और उस पर ग्रंथ लिखा.
तथा अपने द्वारा लिखे गए ग्रंथ को सुल्तान जहां को समर्पित किया.
सुल्तान जहां ने वहां पर एक संग्रहालय तथा अतिथि शाला बनाने के लिए भी धन का अनुदान दिया.
सुल्तान जहां ने जॉन मार्शेल के द्वारा लिखी गई.
पुस्तक के प्रकाशन में भी धन का अनुदान दिया.

यज्ञ और विवाद

ईसा पूर्व पहली सहस्त्राब्दी का समय दुनिया के इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ माना जाता है.
इस काल में.
ईरान - जरथुस्त्र.
चीन - खुंगतसी ( कोंग जी ).
यूनान - सुकरात, प्लेटो, अरस्तू.
भारत - महावीर, बुद्ध.
इन्होंने जीवन के रहस्यों को समझने का प्रयास किया.
मनुष्य तथा विश्व व्यवस्था के बीच रिश्ते को समझने का प्रयास.
इसी समय गंगा घाटी में नए राज्य और शहर का उदय हो रहा था.
जिस कारण आर्थिक और सामाजिक जीवन में कई महत्वपूर्ण बदलाव आ रहे थे.
इन चिंतकों ने बदलते हुए हालात को समझने का भी प्रयास किया

यज्ञों की परंपरा

प्राचीन युग से ही कई धार्मिक विश्वास, चिंतन, व्यवहार की कई धाराएं चली आ रही थी.
पूर्व वैदिक परंपरा की जानकारी हमें ऋग्वेद से मिलती है.
ऋग्वेद में अग्नि, सोम, इन्द्र आदि कई देवताओं की स्तुति का संग्रह उपलब्ध है.

लोग यज्ञ क्यों करते थे ?

1) मवेशी के लिए.
2) पुत्र के लिए.
3) अच्छे स्वास्थ्य के लिए.
4) लंबी उम्र के लिए.
प्रारंभ में यज्ञ सामूहिक रूप से किए जाते थे.
लेकिन बाद में कुछ यज्ञ घरों के मालिकों द्वारा किए जाने लगे.
राजसूय यज्ञ और अश्वमेध यज्ञ काफी जटिल थे.
इन यज्ञों को सरदार यार राजा द्वारा किया जाता था.
इन यज्ञ के लिए ब्राह्मण पुरोहितों पर निर्भर रहना पड़ता था.
उपनिषद से पाई गई विचारधारा से यह पता लगता है कि लोग निम्न प्रश्नों के उत्तर पाने के लिए उत्सुक थे.
1) जीवन का अर्थ.
2) मृत्यु के बाद जीवन की संभावना.
3) पुनर्जन्म.
4) पुनर्जन्म का अतीत के कर्मों से संबंध.

                श्रीराम, युधिष्ठिर, समुन्द्रगुप्त,चंद्रगुप्त (चित्र)

वाद विवाद और चर्चाये

समकालीन बौद्ध ग्रंथों में 64 संप्रदायों या चिंतन परंपरा का उल्लेख मिलता है.
शिक्षक एक जगह से दूसरी जगह घूम घूम कर अपने दर्शन, ज्ञान तथा विश्व के विषय में अपनी समझ को लेकर
एक-दूसरे से तथा सामान्य लोगों से तर्क, वितर्क करते थे.
यह चर्चाएं कुटागारशाला में कुटागारशाला - नुकीली छत वाली झोपडी
या ऐसे उपवन में होती थी.
जहां घुमक्कड़ मनीषी ठहरते थे.
मनीषी- ज्ञानी, विद्वान, चिंतन करने वाला.
इन चर्चाओं में यदि कोई शिक्षक अपनी प्रतिद्वंदी को अपनी बातों
तथा तर्कों से समझा लेता था तो वह अपने अनुयायियों के साथ उसका शिष्य बन जाता था.
ऐसे ही कुछ शिक्षको में महावीर और गौतम बुद्ध भी शामिल थे.
इन्होने तर्क दिया कि मनुष्य खुद अपने दुखों से मुक्ति का प्रयास स्वयं कर सकता है.
इन्होंने वेदों को चुनौती दी.
इनके अनुसार ब्राह्मण या व्यवस्था गलत थी.
यह किसी व्यक्ति के अस्तित्व को उसकी जाति और लिंग से निर्धारण होना गलत मानते थे.
जाति प्रथा को भी गलत मानते थे.

जैन धर्म

संस्थापक – स्वामी ऋषभदेव / आदिनाथ ( प्रथम तीर्थकर )
जैन धर्म में कुल 24 तीर्थकर हुए है.
पार्श्वनाथ – 23 वें तीर्थकर.
महावीर – 24 वें तीर्थकर.

जैन दर्शन की अवधारणा

1) सारा संसार प्राणवान है.
2) पत्थर,चट्टान और जल में भी जीवन होता है.
3) सदैव जीवो के प्रति अहिंसा का पालन करना चाहिए.
4) मनुष्यो, जानवरों, पेड़ - पौधों और कीड़े- मकोड़ों को नहीं मारना चाहिए.
5) जैन अहिंसा के सिद्धांत ने पूरे भारतीय चिंतन को प्रभावित किया.
जैन धर्म के लोग मानते हैं की जन्म और पुनर्जन्म का चक्र मनुष्य के कर्म द्वारा निर्धारित होता है.
कर्म के चक्र से मुक्ति पाने के लिए त्याग और तपस्या के रास्ते को अपनाने की जरूरत है.
यह संसार के त्याग से भी संभव हो पाता है.
इसी कारण मुक्ति के लिए विहारों में निवास करना.
एक अनिवार्य नियम बनाया गया.

जैन साधु और साध्वी के 5 व्रत

1) अहिंसा - हत्या ना करना.
2) सत्य - झूठ ना बोलना.
3) अस्तेय - चोरी ना करना.
4) अपरिग्रह - धन इकट्ठा ना करना.
5) ब्रह्मचर्य - ब्रह्मचर्य का पालन करना.

जैन  धर्म  का  विस्तार

धीरे-धीरे जैन धर्म भी भारत में विभिन्न हिस्सों में फैलने लगा.
बौद्ध विद्वानों की तरह जैन विद्वानों ने भी
प्राकृत, संस्कृत तथा तमिल जैसी अनेक भाषाओं में अपना साहित्य लिखा.
वर्तमान समय में काफी प्राचीन जैन मूर्तियां उपलब्ध है.

बौध धर्म

नाम – सिद्धार्थ.
पिता – शाक्यों के राजा शुद्धोदन.
माता – महामाया देवी (प्रजापति गौतमी ).
जन्म – 563 B.C.
कपिलवस्तु ,लुम्बिनी (नेपाल).
गृहत्याग – 29 वर्ष.
मृत्यु - 483 B.C.

उत्तर प्रदेश के कसिया गाँव.
ज्ञान प्राप्ति – बोधगया (बिहार), निरंजना नदी, पीपल वृक्ष (बोधिवृक्ष).
ज्ञान प्राप्ति – निर्वाण.
प्रथम उपदेश – सारनाथ ( धर्म चक्र प्रवर्तन ).
भगवान बुद्ध का जन्म कपिलवस्तु, लुम्बिनी (नेपाल) में हुआ.
उनका बचपन का नाम सिद्धार्थ था.
यह शाक्य कबीले के सरदार के पुत्र थे.
सिद्धार्थ को जीवन के कटु यथार्थ से दूर
महल की चारदीवारी मे
सभी सुख सुविधाएं प्रदान की गई.
सिद्धार्थ महल के बाहर की दुनिया देखना चाहते थे.
एक बार उन्होंने अपने सारथी को शहर घुमाने के लिए मनाया.
जब वह महल की बाहर की दुनिया में आए तो उनकी यह पहली यात्रा काफी पीड़ादायक थी.
उन्होंने बाहर चार दृश्य देखें जिससे उनका जीवन परिवर्तित हो गया.

चार दृश्य

1) एक बूढ़ा व्यक्ति.
2) एक बीमार व्यक्ति.
3) एक लाश.
4) एक सन्यासी.
सिद्धार्थ ने फैसला किया कि वे संन्यास का रास्ता अपनाएंगे.
उन्होंने महल की सुख सुविधाओं को त्याग दिया.
सिद्धार्थ सत्य की खोज में महल को छोड़कर निकल गए.
सिद्धार्थ ने साधना के कई मार्गो को खोजने का प्रयास किया.
उन्होंने अपने शरीर को अधिक से अधिक कष्ट दिया.
जिसके कारण वह मरते मरते बचे.
इस प्रकार उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई.
ज्ञान प्राप्ति के बाद उन्हें बुद्ध के नाम से जाना गया.
बाकी जीवन भर उन्होंने धर्म एवं सम्यक जीवन यापन की शिक्षा दी.

बुद्ध की शिक्षाएं

त्रिपिटक )
1) विनय पिटक – बौद्ध संघ के नियम
2) सुत्त पिटक – उपदेश
3) अभिधम्म पिटक – दार्शनिक सिद्धांत
सुत पिटक में दी गई कहानियों के आधार पर भगवान बुद्ध की
शिक्षाओं का पुनर्निर्माण किया गया.
कुछ कहानियों में अलौकिक शक्तियों का वर्णन किया गया है.
तो कुछ कहानियों में अलौकिक शक्तियों की बजाय बुद्ध ने
विवेक और तर्क के आधार पर समझाने का प्रयास किया.
1) विश्व अस्थिर है यह लगातार बदलता रहता है.
2) यहां कुछ भी स्थाई नहीं है.
3) भगवान का होना अप्रासंगिक है.
4) राजाओं को दयावान होने की सलाह दी.
5) सत्य और अहिंसा.
6) मध्यम मार्ग अपनाना.

निर्वाण - निर्वाण का अर्थ होता है अहम और इच्छा को खत्म करना.
बुद्ध ऐसा मानते थे कि हमारी समस्याओं की जड़ हमारी इच्छाएं हैं.
यदि हम अपनी इच्छाओं और लालसा का त्याग कर देंगे तो
हमें निर्वाण की प्राप्ति होगी.
बुद्ध ने अपने शिष्यों को अंतिम निर्देश यह दिया
तुम सब अपने लिए खुद ही ज्योति बनो क्योंकि तुम्हें खुद ही अपनी मुक्ति का रास्ता ढूंढना है.

बुद्ध के अनुयायी

बुद्ध से प्रभावित होकर धीरे धीरे शिष्यों का दल तैयार हो गया.
अब आवश्यकता थी एक संघ की स्थापना की.
संघ की स्थापना की गई कुछ भिक्षु धम्म के शिक्षक बन गए.
यह बिल्कुल सादा जीवन बिताते थे.
यह उतना ही वस्तु अपने पास रखते थे जितना जीवन यापन के लिए जरूरी हो.
जैसे - भोजन दान प्राप्त करने के लिए कटोरा.
यह लोग दान पर निर्भर रहते थे.
इसीलिए इन्हें भिक्षु कहा जाता था.
प्रारंभ में केवल पुरुष ही संघ में शामिल हो सकते थे.
बाद में महिलाओं को भी संघ में शामिल होने की अनुमति मिली.
गौतम बुद्ध के प्रिय शिष्य आंनद ने बुद्ध को समझा कर महिलाओं को संघ में शामिल करने की अनुमति प्राप्त की.
बुध की उपमाता प्रजापति गौतमी संघ में शामिल होने वाली पहली भिक्षुणी बनी.
कई स्त्रियां जो संघ में शामिल हुई थी.
वह भी धम्म की उपदेशिका बन गई.
बाद में यह महिलाएं थेरी बन गई.
थेरी - जिन्होंने निर्वाण प्राप्त कर लिया

बुद्ध के अनुयाई विभिन्न सामाजिक वर्गों से आए थे

बुद्ध के अनुयाई इन सामाजिक वर्गों से आए थे
1) राजा
2) धनवान
3) गरीब
4) सामान्य जन
5) कर्मकार
6) दास
7) शिल्पी आदि

जो एक बार संघ में शामिल हो जाता था.
उसके बाद सभी को समान माना जाता था.
भिक्षु या भिक्षुणी बन जाने के बाद
पुरानी पहचान को त्याग देना पड़ता था.
बुद्ध जब जीवित थे उस काल में बौद्ध धर्म तेजी से फैला.
लेकिन बुद्ध की मृत्यु के पश्चात भी यह धर्म तेजी से विभिन्न देशों में फैलने लगा.
जो लोग समकालीन प्रथाओं से असंतुष्ट थे बौद्ध धर्म में शामिल होने लगे.
बौद्ध शिक्षा में जन्म के आधार पर श्रेष्ठ नहीं माना जाता.
बल्कि मनुष्य के कर्म उसके अच्छे आचरण को
महत्व दिया जाता था.
इसी कारण महिला और पुरुष इस धर्म
की ओर आकर्षित हुए.

अशोक के धम्म की विशेषता बताइए ?

अशोक के धम्म की विशेषता.
1) बड़ों का सम्मान करना.
2) अपने से छोटो के साथ उचित व्यवहार करना.
3) सत्य बोलना, धार्मिक सहिष्णुता.
4) विद्वानो, ब्राह्मनों के प्रति सहानुभूति की नीति.
5) अहिंसा का संदेश, सभी धर्मों का सम्मान.
6)दासों और सेवकों के प्रति दया का व्यवहार करना.

स्तूप

बहुत प्राचीन काल से ही लोग कुछ जगह को पवित्र मानते थे अक्सर जहां खास वनस्पति होती थी, अनूठी चटाने थी या विस्मयकारी प्राकृतिक सौंदर्य था, वहां पवित्र स्थल बन जाते थे ऐसे कुछ स्थानों पर एक छोटी सी वेदी भी बनी रहती थी
जिन्हें कभी-कभी चैत्यो कहा जाता था.
बौद्ध साहित्य में कई चैत्यो की चर्चा है इनमें बुध के जीवन से जुड़ी जगहों का ही वर्णन है.

स्तूप क्या है

स्तूप एक अर्ध गोलाकार संरचना है.
स्तूप की परंपरा बुद्ध से पहले की रही होगी.
इसमें बुद्ध से जुड़े अवशेषों को दफनाया गया.
इसलिए बौद्ध धर्म में यह पवित्र समझा जाने लगा.
इस संरचना को बौद्ध धर्म के प्रतीक के रूप में प्रतिष्ठा मिली.

स्तूप कैसे बनाए गए थे

विभिन्न प्राचीन स्तूपो की वेदिकाओं और उनके स्तंभों में कुछ अभिलेख मिले हैं.
इन अभिलेखों के अध्ययन के बाद इतिहासकारों को यह पता लगा कि इन स्तूपो को बनाने तथा सजाने के लिए दान दिया जाता था.
यह दान राजा, शिल्पकार, व्यापारियों, महिला तथा पुरुष,आम लोगों, भिक्षु द्वारा दिया गया था.

स्तूप की संरचना

स्तूप का संस्कृति अर्थ - टीला है.
इसका जन्म एक गोलार्ध आकृति के मिट्टी के टीले से हुए है.
इस बाद ने अंड कहा गया.
धीरे-धीरे इसकी संरचना अधिक जटिल होती गई.
इसमें कई चौकोर और गोलाकारों का संतुलन बनाया जाने लगा.
अंड के ऊपर एक हर्मिका होती थी.
यह छज्जे जैसा संरचना ईश्वर के घर का प्रतीक था.
इसके ऊपर एक छतरी लगी होती थी.
स्तूप के चारों ओर एक घेरा होता था जो इस पवित्र स्थल को सामान्य दुनिया से अलग करता था.
कुछ स्तूपो पर तोरणद्वार भी मिले हैं.
इन तोरणद्वार पर नक्काशी

अशोकवादन नामक एक बौद्ध ग्रंथ के अनुसार अशोक ने बुद्ध के अवशेषों के हिस्से हर महत्वपूर्ण शहर में बांट कर उनके ऊपर स्तूप बनाने का आदेश दिया.
ईसा पूर्व दूसरी सदी तक भरहुत, सांची और सारनाथ जैसी जगहों पर स्तूप बनाए गए.

स्तूप की खोज अमरावती और सांची की नियति

स्थानीय राजा

सन् 1796 में एक स्थानीय राजा मंदिर बनाना चाहते थे.
उन्हें अचानक अमरावती के स्तूप के अवशेष मिले.
उन्होंने वंहा मिले पत्थर का इस्तेमाल करने का निश्चय किया.
उन्हें लगा इस पहाड़ी में जरूर कोई खजाना छिपा है.
( कॉलिन मेकंगी )
अंग्रेज अधिकारी कॉलिन मैकेंजी इस स्थान से गुजरे उन्होंने कई मूर्तियों का चित्र बनाया.

गुंटूर ( आंध्र प्रदेश ) के कमिश्नर

सन् 1854 में गुंटूर के कमिश्नर ने अमरावती क्षेत्र की यात्रा की.
वे कई मूर्तियों और पत्थर के टुकड़ों को मद्रास ले गए.
इन पत्थर को कमिश्नर के नाम पर एलियट संगमरमर के नाम से जाना जाता है.
उन्होंने पश्चिमी तोरणद्वार को भी खोजा.
और यह निष्कर्ष निकाला कि अमरावती का स्तूप.
बौद्ध लोगों का सबसे विशाल और शानदार स्तूप था.
1850 के दशक में अमरावती के स्तूप के पत्थर को अलग अलग स्थान पर के जाया गया.
कुछ पत्थर कोलकाता में एशियाटिक सोसाइटी ऑफ़ बंगाल पहुंचे.
कुछ मद्रास कुछ पत्थर लंदन तक पहुंचा दिए.
इस स्थान पर जो भी अंग्रेज अधिकारी आते.
यहां से कुछ ना कुछ लेकर जरूर जाते हैं.

एक अलग सोच के व्यक्ति - एच. एच कॉल

एच. एच कॉल एक अलग सोच के व्यक्ति थे.
यह ऐसा मानते थे कि देश की प्राचीन कलाकृतियों को लूट कर ले जाना अच्छा नहीं है.
इनका मानना था कि संग्रहालय में मूर्तियों की प्लास्टर प्रतिकृति रखी जानी चाहिए और असली कृति को उसी स्थान पर रखा.
रहने देना चाहिए जहां वह प्राप्त हुई हो.

सांची क्यों बच गया जब कि अमरावती नष्ट हो गया ?

अमरावती की खोज पहले हो गई थी.
अमरावती के स्तूप के संरक्षण की व्यवस्था नहीं की गई.
विद्वान अमरावती के महत्व को नहीं समझ पाए, 1818 में जब सांची की खोज हुई.
उस समय यह स्तूप अच्छी हालत में था.
स्तूप के तीन तोरणद्वार खड़े थे.
चौथा तोरणद्वार गिरा हुआ था.
सांची के तोरणद्वारों को भी अंग्रेज और फ्रांसीसीयों ने अपने देश ले जाने का प्रयास किया.
लेकिन इसका संरक्षण हो पाया.
मूल कृतियां सांची में ही स्थापित रह गई.

मूर्तिकला

प्राचीन मूर्तियां इतनी खूबसूरत थी कि यूरोपीय लोग इन्हें अपने देश ले जाना चाहते थे.
और ले जाने में सफल भी हुए.
क्योंकि यह मूर्तियां खूबसूरत और मूल्यवान थी.

पत्थर में गढी कथाएं

कुछ ऐसे घुमक्कड़ कथावाचक होते थे.
जो अपने साथ कपड़े या कागज पर बने चित्र को लेकर घूमते थे.
जब वह कोई कहानी सुनाते तब वे इन चित्रों को दिखाते थे.
कला इतिहासकारों ने जब सांची की मूर्तिकला को गहराई से अध्ययन किया.
तब यह पाया कि यह दृश्य वेशांतर जातक से लिया गया है.
इसमें एक दानी राजकुमार की कहानी है.
जिसने अपना सब कुछ एक ब्राह्मण को दान में दिया.
और स्वयं अपने पत्नी और अपने बच्चों के साथ जंगल में रहने चला गया.

उपासना के प्रतीक

बौद्ध मूर्तिकला को समझने के लिए कला इतिहासकारों के द्वारा बुद्ध चरित लेखन को समझना पड़ा.
बौद्ध चरित लेखन के अनुसार भगवान बुद्ध को एक पेड़ के नीचे ध्यान करते हुए ज्ञान प्राप्त हुआ.
इस घटना को कुछ प्रारंभिक मूर्तिकार ने बुद्ध को मानव रूप में ना दिखा कर उनकी उपस्थिति प्रतीकों के द्वारा दिखाने का प्रयास किया.

लोक परंपराएं

सांची में कुछ ऐसी मूर्तियां मिली है जिनका संबंध शायद सीधा बौद्ध मत से नहीं है.
इसमें कुछ सुंदर स्त्रियों की मूर्ति है.
शुरू में विद्वान इस मूर्ति के महत्व को नहीं समझ पाए.
क्योंकि इस मूर्ति का त्याग और तपस्या.
से कोई रिश्ता नजर नहीं आता था.
लेकिन साहित्यिक परंपराओं का
अध्ययन करने के बाद यह पता
लगा कि यह शालभंजिका की मूर्ति है.
लोक परंपरा में ऐसा माना जाता है कि इस स्त्री के द्वारा छुए जाने से पेड़ों में फूल खिल जाते हैं और फल लगने लगते हैं.
इन्हें शुभ प्रतीक माना जाता था इसी कारण इसे स्तूप में लगाया गया.
इससे यह भी पता लगता है कि बौद्ध धर्म में
बाहर के विश्वासों, प्रथा और धारणाओं को शामिल
किया गया जिससे बौद्ध धर्म समृद्ध हुआ.

इसके अलावा जानवरों की मूर्तियां भी मिली है.
हाथी, घोड़े, गाय, बैल, बंदर इत्यादि.
जातक से कई जानवरों की कहानियां ली गई है.
जानवरों को मनुष्यों के गुणों के प्रतीक के रूप
में इस्तेमाल किया जाता था.
उदाहरण - हाथी शक्ति और ज्ञान का प्रतीक.

एक महिला की मूर्ति भी मिली है जो हाथी के ऊपर जल छिड़क रही है.
कुछ इतिहासकार इन्हें बुद्ध की मां मानते हैं.
तो कुछ इतिहासकार इन्हें लोकप्रिय देवी
गजलक्ष्मी मानते हैं.
गजलक्ष्मी सौभाग्य लाने वाली देवी थी.

नई धार्मिक परंपराएं - महायान बौद्ध मत

भगवान बुद्ध की मृत्यु के बाद के समय में बौद्ध धर्म दो भाग में बंट गया
1) हीनयान ( थेरवाद )
2) महायान
हीनयान
I- पुरानी परम्परा
II- निब्बान के लिए व्यक्तिगत प्रयास
III- बुद्ध को मनुष्य माना
IV- मूर्तिपूजा निषेध
महायान
I- नवीन परम्परा
II- बुद्ध को अवतार माना
III- मूर्तिपूजा को अपनाया

पौराणिक हिंदू धर्म का उदय

वैष्णव - विष्णु के अनुयाई.
शैव - शिव के अनुयाई.
वैष्णववाद में कई अवतारों की पूजा होती है.
ऐसा माना जाता है कि पापियों के बढ़ते प्रभाव के चलते दुनिया में व्यवस्था बिगड़ जाती है.
तब संसार की रक्षा के लिए भगवान अलग-अलग रूपों में अवतार लेते हैं.
यह अलग-अलग अवतार देश के विभिन्न हिस्सों में काफी लोकप्रिय थे.
कई अवतारों को मूर्ति के रूप में दिखाया जाता है.
शिव को उनके प्रतीक लिंग के रूप में दिखाया गया है.
इतिहासकारों को इन मूर्तिकला को समझने के लिए पुराणों
का अध्ययन करना पड़ा.
इनमें बहुत से किस्से ऐसे थे जो सैकड़ों साल पहले
रचने के बाद सुने और सुनाए जाते थे इसमें देवी देवताओं की कहानियां है.
इनमें संस्कृत के श्लोक लिखे थे.
जिन्हें ऊंची आवाज में पढ़ा जाता था.
इन्हें महिलाएं और शूद्र भी सुन सकते थे

मंदिरों का निर्माण

शुरू के मंदिर एक चौकोर कमरे के रूप में थे.
जिन्हें गर्भगृह कहा जाता था.
इनमें एक दरवाजा होता था जिसमें उपासक मूर्ति की पूजा करने के लिए अंदर जा सके.
बाद में गर्भगृह के ऊपर एक ऊंचा ढांचा बनाया जाने लगा.
जिसे शिखर कहा जाता था.
मंदिर की दीवारों पर भित्ति चित्र उत्पन्न किए जाते थे.
बाद में मंदिरों का निर्माण का तरीका बदला.
अब मंदिरों के साथ बड़े सभा स्थल ऊंची दीवारें भी जुड़ गए.
जलापूर्ति का इंतजाम भी किया जाने लगा.
शुरु-शुरु के मंदिर कुछ पहाड़ियों को काटकर
कृतिम गुफाओं के रूप में बनाए गए थे.

कृतिम गुफाएं अशोक के आदेश के बाद आजीवक संप्रदाय के संतों के लिए बनाई गई थी.
यह परंपरा धीरे-धीरे विकसित होती रही.
सबसे विकसित रूप हमें आठवीं सदी के
कैलाशनाथ के मंदिर में नजर आता है.
यह मंदिर पूरी पहाड़ी काटकर बनाया गया.

अनजाने को समझने की कोशिश

अंग्रेजों ने जब 19वीं सदी में देवी-देवताओं की मूर्तियां देखी तो वे इसके महत्व को समझ नहीं पाए.
कई सिर, हाथ वाली मूर्ति मनुष्य और जानवर के रूपों में मिलाकर बनाई गई मूर्ति.
यह मूर्ति यूरोपियों को विकृत लगी वह इन से घृणा करने लगे.
इन विद्वानों ने ऐसे अजीबोगरीब मूर्तियों को समझने के लिए उनकी तुलना ऐसी परंपरा से की जिसके बारे में वह पहले से जानते थे.
उन्होंने प्राचीन यूनान की कला परंपरा से भारतीय मूर्तिकला की तुलना की.

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