Class 12th ( किसान, जमींदार और राज्य ) || History Chapter 8 Notes in Hindi

Class 12th ( किसान, जमींदार और राज्य ) ||  History Chapter 8 Notes in Hindi

⊕ सोलहवीं - सत्रहवीं सदी का हिंदुस्तान 

  • सोलहवीं - सत्रहवीं सदी के दौरान हिंदुस्तान में लगभग 85 फ़ीसदी लोग गाँवों में रहते थे । 
  • छोटे किसान और भूस्वामी संभ्रांत दोनों ही कृषि उत्पादन से जुड़े थे और दोनों ही फ़सल के हिस्सों के दावेदार थे । 
  • इससे उनके बीच सहयोग , प्रतियोगिता और संघर्ष के रिश्ते बने । 
  • इसी समय कई बाहरी ताकतें भी ग्रामीण दुनिया में दाखिल हुईं , इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण मुग़ल राज्य था 
  • मुग़ल राज्य अपनी आमदनी का बहुत बड़ा हिस्सा कृषि उत्पादन से उगाहता था । 

राज्य के नुमाइंदे 

  1. राजस्व निर्धारित करने वाले 
  2. राजस्व वसूली करने वाले
  3. हिसाब रखने वाले
  • ये अधिकारी ग्रामीण समाज पर काबू रखने की कोशिश करते थे । 
  • वे तसल्ली करना चाहते थे कि खेतों की जुताई हो और राज्य को उपज से अपने हिस्से का कर ( TAX ) समय पर मिल जाए । 
  • कई फ़सलें बेचने के लिए उगाई जाती थीं , इसलिए व्यापार , मुद्रा और बाज़ार भी गाँवों में घुस आए और इससे खेती वाले इलाके शहर से जुड़ गए । 

 किसान और कृषि उत्पादन 

किसान साल भर अलग - अलग मौसम में विभिन्न काम करते थे जैसे -  
1- ज़मीन की जुताई 
2- बीज बोना 
3- फ़सल पकने पर उसकी कटाई

  • सिर्फ मैदानी इलाकों में बसे किसानों की खेती ही ग्रामीण भारत की ख़ासियत नहीं थी ।
  • ऐसे क्षेत्र भी थे जैसे कि सूखी ज़मीन के विशाल हिस्सों से पहाड़ियों वाले इलाके जहाँ उस तरह की खेती नहीं हो सकती थी जैसी कि ज़्यादा उपजाऊ ज़मीनों पर होती थी 
  • इसके अलावा , भूखंड का एक बहुत बड़ा हिस्सा जंगलों से घिरा था । 
  • इस तरह जब हम कृषि समाज की बात करते हैं तब हमें इन भौगोलिक विविधताओं का ख्याल रखना चाहिए 

1. स्रोतों की तलाश

  • सोलहवीं और सत्रहवीं सदियों के कृषि इतिहास को समझने के लिए हमारे मुख्य स्रोत वे ऐतिहासिक ग्रंथ व दस्तावेज़ हैं जो मुग़ल दरबार की निगरानी में लिखे गए थे 
  • क्योंकि किसान अपने बारे में खुद नहीं लिखा करते थे इसलिए ग्रामीण समाज के क्रियाकलापों की जानकारी हमें उन लोगों से नहीं मिलती जो खेतों में काम करते थे ।
  • इसलिए आइन - ए - अकबरी को एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक ग्रंथ मन जाता है 

1. आइन - ए - अकबरी 

  • यह अकबर के मुग़ल दरबारी इतिहासकार अबुल फज्ल ने लिखा था । 
  • इस ग्रन्थ में हमें खेतों की नियमित जुताई 
  • राज्य के नुमाइंदों द्वारा करों की उगाही 
  • राज्य व ज़मींदारों के बीच के रिश्ते का लेखा - जोखा इस ग्रंथ में बड़ी सावधानी से पेश किया गया है । 

2. आइन - ए – अकबरी  का मुख्य उद्देश्य 

  • अकबर के सम्राज्य का एक ऐसा खाका पेश करना था जहाँ एक मज़बूत सत्ताधारी वर्ग सामाजिक मेल - जोल बना कर रखता था । 
  • आइन के लेखक के मुताबिक , मुग़ल राज्य के खिलाफ कोई बगावत या किसी भी किस्म की स्वायत्त सत्ता की दावेदारी का असफल होना पहले ही तय था ।
  • किसानों के बारे में जो कुछ हमें आइन से पता चलता है वह सत्ता के ऊँचे गलियारों का नज़रिया है ।

3. अन्य  स्रोतों से जानकारी 

  • हम आइन की जानकारी के साथ - साथ हम उन स्रोतों का भी इस्तेमाल कर सकते हैं जो मुग़लों की राजधानी से दूर के इलाकों में लिखे गए थे । 
  • इनमें सत्रहवीं व अठारहवीं सदियों के गुजरात , महाराष्ट्र और राजस्थान से मिलने वाले वे दस्तावेज़ शामिल हैं जो सरकार की आमदनी की विस्तृत जानकारी देते हैं । 
  • इसके अलावा , ईस्ट इंडिया कंपनी के बहुत सारे दस्तावेज़ भी हैं जो पूर्वी भारत में कृषि संबंधों का उपयोगी खाका पेश करते हैं । 
  • ये सभी स्रोत किसानों , ज़मींदारों और राज्य के बीच तने झगड़ों को दर्ज करते हैं । 
  • ये स्रोत यह समझने में हमारी मदद करते हैं कि किसान राज्य को किस नज़रिये से देखते थे और राज्य से उन्हें कैसे न्याय की उम्मीद थी।


2. किसान और उनकी ज़मीन

मुग़ल काल के भारतीय फ़ारसी स्रोत किसान के लिए आमतौर पर रैयत या मुज़रियान शब्द का इस्तेमाल करते थे। कई बार हमें किसान या आसामी जैसे शब्द भी मिलते हैं ।
सत्रहवीं सदी के स्रोत दो तरह के किसानों की चर्चा करते हैं।  

1. खुद - काश्त :- खुद - काश्त ऐसे किसान थे जो उन्हीं गाँवों में रहते थे जिनमें उनकी ज़मीन थीं ।

2. पाहि - काश्त :- पाहि - काश्त वे खेतिहर थे जो दूसरे गाँवों से ठेके पर खेती करने आते थे लोग अपनी मर्जी से भी पाहि – काश्त बनते थे।

3. सिंचाई और तकनीक 

  • जमीन की बहुतायत , मजदूरों की मौजूदगी , और किसानों की गतिशीलता की वजह से कृषि का लगातार विस्तार हुआ । 
  • चूँकि खेती का प्राथमिक उद्देश्य लोगों का पेट भरना था , इसलिए रोज़मर्रा के खाने की जरूरतें जैसे चावल , गेहूँ , ज्वार इत्यादि फ़सलें सबसे ज्यादा उगाई जाती थीं ।
  • जिन इलाकों में प्रति वर्ष 40 इंच या उससे ज़्यादा बारिश होती थी , वहाँ कमोबेश चावल की खेती होती थी ।
  • कम बारिश वाले इलाकों में गेहूँ व ज्वार-बाजरे की खेती ज्यादा प्रचलित थी ।
  • मानसून भारतीय कृषि की रीढ़ था , जैसा कि आज भी है लेकिन कुछ ऐसी फ़सलें भी थीं जिनके लिए अतिरिक्त पानी की ज़रूरत थी इनके लिए सिंचाई के कृत्रिम उपाय बनाने पड़े ।
  • सिंचाई कार्यों को राज्य की मदद भी मिलती थी उत्तर भारत में राज्य ने कई नई नहरें व नाले खुदवाए और कई पुरानी नहरों की मरम्मत करवाई, जैसे कि शाहजहाँ के शासनकाल के दौरान पंजाब में शाह नहर ।

4. तकनीकों का इस्तेमाल 

  • खेती के लिए पशुबल का इस्तेमाल और लकड़ी के हलके हल का इस्तेमाल जिसके एक छोर पर लोहे की नुकीली धार या फाल लगी होती थी 
  • ऐसे हल मिट्टी को बहुत गहरे नहीं खोदते थे जिसके कारण तेज़ गर्मी के महीनों में नमी बची रहती थी । 
  • बैलों के जोड़े के सहारे खींचे जाने वाले बरमे का इस्तेमाल बीज बोने के लिए किया जाता था ।
  • बीजों को हाथ से छिड़क कर बोने का रिवाज ज्यादा प्रचलित था । 
  • मिट्टी की गुड़ाई और साथ - साथ निराई के लिए लकड़ी के मूठ वाले लोहे के पतले धार काम में लाए जाते

5. फसलों की भरमार

  • मौसम के दो मुख्य चक्रों के दौरान खेती की जाती थी : एक खरीफ़ ( पतझड़ में ) और दूसरी रबी ( वसंत में )
  • सूखे इलाकों और बंजर ज़मीन को छोड़ दें तो ज्यादातर जगहों पर साल में कम से कम दो फ़सलें होती थीं । 
  • जहाँ बारिश या सिंचाई के अन्य साधन हर वक्त मौजूद थे वहाँ तो साल में तीन फसलें भी उगाई जाती थीं । 
  • इस वजह से पैदावार भारी विविधता पाई जाती थी । 
  • आइन हमें बताती है कि दोनों मौसम मिलाकर , मुग़ल प्रांत आगरा में 39 किस्म की फ़सलें उगाई जाती थीं 
  • दिल्ली प्रांत में 43 फ़सलों की पैदावार होती थी । 
  • बंगाल में सिर्फ चावल की 50 किस्में पैदा होती थीं ।
  • स्रोतों में हमें अकसर जिन्स - ए - कामिल ( सर्वोत्तम फ़सलें ) जैसे लफ़्ज़ मिलते हैं कपास और गन्ने जैसी फ़सलें बेहतरीन जिन्स - ए - कामिल थीं । 
  • मुग़ल राज्य भी किसानों को ऐसी फ़सलों की खेती करने के लिए बढ़ावा देता था क्योंकि इनसे राज्य को ज़्यादा कर मिलता था । 
  • मध्य भारत और दक्कनी पठार में फैले हुए ज़मीन के बड़े - बड़े टुकड़ों पर कपास उगाई जाती थी जबकि बंगाल अपनी चीनी के लिए मशहूर था । 
  • तिलहन ( जैसे सरसों ) और दलहन भी नकदी फ़सलों में आती थीं । 
  • सत्रहवीं सदी में दुनिया के अलग - अलग हिस्सों से कई नयी फ़सलें भारतीय उपमहाद्वीप पहुँचीं मक्का भारत में अफ्रीका और स्पेन के रास्ते आया टमाटर , आलू और मिर्च जैसी सब्ज़ियाँ नयी दुनिया से लाई गईं । इसी तरह अनानास और पपीता जैसे फल वहीं से आए 

⊕ ग्रामीण समुदाय

  • किसान की अपनी ज़मीन पर व्यक्तिगत मिल्कियत होती थी साथ ही जहाँ तक उनके सामाजिक अस्तित्व का सवाल है,कई मायनों में वे एक सामूहिक ग्रामीण समुदाय का हिस्सा थे ।

इस समुदाय के तीन घटक थे – 

  1. खेतिहर किसान 
  2. पंचायत 
  3. गाँव का मुखिया ( मुक़द्दम या मंडल )

1. जाति और ग्रामीण माहौल

  • जातिगत भेदभावों की वजह से खेतिहर किसान कई तरह के समूहों में बँटे थे । 
  • खेतों की जुताई करने वालों में एक बड़ी तादाद ऐसे लोगों की थी जो नीच समझे जाने वाले कामों में लगे थे , या फिर खेतों में मज़दूरी करते थे ।
  • हालाँकि खेती लायक ज़मीन की कमी नहीं थी , फिर भी कुछ जाति के लोगों को सिर्फ नीच समझे जाने वाले काम ही दिए जाते थे इस तरह वे ग़रीब रहने के लिए मजबूर थे । 
  • जनगणना तो उस वक्त नहीं होती थी , पर जो थोड़े बहुत आँकड़े और तथ्य हमारे पास हैं उनसे पता चलता है कि गाँव की आबादी का बहुत बड़ा हिस्सा ऐसे ही समूहों का था । 
  • जिनके पास संसाधन सबसे कम थे और ये जाति व्यवस्था की पाबंदियों से बँधे थे इनकी हालत कमोबेश वैसी ही थी जैसी कि आधुनिक भारत में दलितों की 
  • मुसलमान समुदायों में हलालख़ोरान जैसे ' नीच ' कामों से जुड़े समूह गाँव की हदों के बाहर ही रह सकते थे 
  • इसी तरह बिहार में मल्लाहज़ादाओं की तुलना दासों से की जा सकती थी । 
  • सत्रहवीं सदी में मारवाड़ में लिखी गई एक किताब राजपूतों की चर्चा किसानों के रूप में करती है । इस किताब के मुताबिक जाट भी किसान थे लेकिन जाति व्यवस्था में उनकी जगह राजपूतों के मुक़ाबले नीची थी । 
  • पशुपालन और बागबानी में बढ़ते मुनाफे की वजह से अहीर , गुज्जर और माली जैसी जातियाँ सामाजिक सीढ़ी में ऊपर उठीं । 

2. पंचायतें और मुखिया

  • गाँव की पंचायत में बुजुर्गों का जमावड़ा होता था आमतौर पर वे गाँव के महत्त्वपूर्ण लोग हुआ करते थे जिनके पास अपनी संपत्ति के पुश्तैनी अधिकार होते थे ।
  • जिन गाँवों में कई जातियों के लोग रहते थे , वहाँ अकसर पंचायत में भी विविधता पाई जाती थी । 
  • यह एक ऐसा अल्पतंत्र था जिसमें गाँव के अलग - अलग संप्रदायों और जातियों की नुमाइंदगी होती थी ।
  • पंचायत का फ़ैसला गाँव में सबको मानना पड़ता था । 
  • पंचायत का सरदार एक मुखिया होता था जिसे मुक़द्दम या मंडल कहते थे । 
  • कुछ स्रोतों से ऐसा लगता है कि मुखिया का चुनाव गाँव के बुजुर्गों की आम सहमति से होता था और इस चुनाव के बाद उन्हें इसकी मंजूरी ज़मींदार से लेनी पड़ती थी । 
  • मुखिया अपने ओहदे पर तभी तक बना रहता था जब तक गाँव के बुजुर्गों को उस पर भरोसा था । ऐसा नहीं होने पर बुजुर्ग उसे बर्खास्त कर सकते थे । 
  • गाँव के आमदनी व खर्चे का हिसाब - किताब अपनी निगरानी में बनवाना मुखिया का मुख्य काम था और इसमें पंचायत का पटवारी उसकी मदद करता था । 
  • पंचायत का खर्चा गाँव के उस आम ख़जाने से चलता था जिसमें हर व्यक्ति अपना योगदान देता था । 
  • इस ख़जाने से उन कर अधिकारियों की ख़ातिरदारी का ख़र्चा भी किया जाता था जो समय - समय पर गाँव का दौरा किया करते थे 
  • इस कोष का इस्तेमाल बाढ़ जैसी प्राकृतिक विपदाओं से निपटने के लिए भी होता था और ऐसे सामुदायिक कार्यों के लिए भी जो किसान खुद नहीं कर सकते थे , जैसे कि मिट्टी के छोटे - मोटे बाँध बनाना या नहर खोदना । 
  • पंचायत का एक बड़ा काम यह तसल्ली करना था कि गाँव में रहने वाले अलग - अलग समुदायों के लोग अपनी जाति की हदों के अंदर रहें । 
  • पूर्वी भारत में सभी शादियाँ मंडल की मौजूदगी में होती थीं ।
  • “ जाति की अवहेलना रोकने के लिए ” लोगों के आचरण पर नज़र रखना गाँव के मुखिया की ज़िम्मेदारियों में से एक था । 
  • पंचायतों को जुर्माना लगाने और समुदाय से निष्कासित करने जैसे ज़्यादा गंभीर दंड देने के अधिकार थे । समुदाय से बाहर निकालना एक कड़ा कदम था जो एक सीमित समय के लिए लागू किया जाता था । इसके तहत दंडित व्यक्ति को ( दिए हुए समय के लिए ) गाँव छोड़ना पड़ता था इस दौरान वह अपनी जाति और पेशे से हाथ धो बैठता था
    ऐसी नीतियों का मकसद जातिगत रिवाजों की अवहेलना रोकना था । 
  • ग्राम पंचायत के अलावा गाँव में हर जाति की अपनी पंचायत होती थी समाज में ये पंचायतें काफ़ी ताकतवर होती थीं । 
  • राजस्थान में जाति पंचायतें अलग - अलग जातियों के लोगों के बीच के झगड़ों का निपटारा करती थीं । वे ज़मीन से जुड़े दावेदारियों के झगड़े सुलझाती थीं यह तय करती थीं कि शादियाँ जातिगत मानदंडों के मुताबिक हो रही हैं या नहीं , और यह भी कि गाँव के आयोजन में किसको किसके ऊपर तरजीह दी जाएगी । 
  • पश्चिम भारत ख़ासकर राजस्थान और महाराष्ट्र जैसे प्रांतों- के संकलित दस्तावेजों में ऐसी कई अर्जियाँ हैं जिनमें पंचायत से “ ऊँची " जातियों या राज्य के अधिकारियों के ख़िलाफ़ ज़बरन कर उगाही या बेगार वसूली की शिकायत की गई है । आमतौर पर यह अर्जियाँ ग्रामीण समुदाय के सबसे निचले तबके के लोग लगाते थे ।
  • अकसर सामूहिक तौर पर भी ऐसी अर्जियाँ दी जाती थीं । इनमें किसी जाति या संप्रदाय विशेष के लोग संभ्रांत समूहों की उन माँगों के ख़िलाफ़ अपना विरोध जताते थे जिन्हें वे नैतिक दृष्टि से अवैध मानते थे । 

3. ग्रामीण दस्तकार

  • अंग्रेज़ी शासन के शुरुआती वर्षों में किए गए  गाँवों के सर्वेक्षण और मराठाओं के दस्तावेज़ बताते हैं कि गाँवों में दस्तकार काफ़ी अच्छी तादाद में रहते थे । कहीं - कहीं तो कुल घरों के 25 फ़ीसदी घर
  • दस्तकारों के थे कभी - कभी किसानों और दस्ताकारों के बीच फ़र्क करना मुश्किल होता था क्योंकि कई ऐसे समूह थे जो दोनों किस्म के काम करते थे । 
  • खेतिहर और उसके परिवार के सदस्य कई तरह की वस्तुओं के उत्पादन में शिरकत करते थे रँगरेज़ी , कपड़े पर छपाई , मिट्टी के बरतनों को पकाना खेती के औज़ारों को बनाना या उनकी मरम्मत करना । 
  • उन महीनों में जब उनके पास खेती के काम से फ़ुरसत होती - उस समय ये खेतिहर दस्तकारी का काम करते थे । 
    कुम्हार , लोहार , बढ़ई , नाई , यहाँ तक कि सुनार जैसे ग्रामीण दस्तकार भी अपनी सेवाएँ गाँव के लोगों को देते थे जिसके बदले गाँव वाले उन्हें अलग - अलग तरीकों से उन सेवाओं की अदायगी करते थे । 
  • आमतौर पर या तो उन्हें फ़सल का एक हिस्सा दे दिया जाता था या फिर गाँव की ज़मीन का एक टुकड़ा ,शायद कोई ऐसी ज़मीन जो खेती लायक होने के बावजूद बेकार पड़ी थी । 

4. एक " छोटा गणराज्य

  • उन्नीसवीं सदी के कुछ अंग्रेज़ अफ़सरों ने भारतीय गाँवों को एक ऐसे " छोटे गणराज्य " के रूप में देखा जहाँ लोग सामूहिक स्तर पर भाईचारे के साथ संसाधनों और श्रम का बँटवारा करते थे । 
  • लेकिन ऐसा नहीं लगता कि गाँव में सामाजिक बराबरी थी । संपत्ति की व्यक्तिगत मिल्कियत होती थी , साथ ही जाति और जेंडर ( लिंग ) के नाम पर समाज में गहरी विषमताएँ थीं । 
  • कुछ ताकतवर लोग गाँव के मसलों पर फ़ैसले लेते थे और कमजोर वर्गों का शोषण करते थे । न्याय करने का अधिकार भी उन्हीं को मिला हुआ था । 

⊕ कृषि समाज में महिलाएँ 

  • महिलाएँ और पुरुष कंधे से कंधा मिलाकर खेतों में काम करते थे । पुरुष खेत जोतते थे , हल चलाते थे महिलाएँ बुआई , निराई और कटाई , पकी हुई फ़सल का दाना निकालने का काम करती थीं । 
  • पश्चिमी भारत में राजस्वला महिलाओं को हल या कुम्हार का चाक छूने की इजाजत नहीं थी , बंगाल में अपने मासिक धर्म के समय महिलाएँ पान के बगान में नहीं घुस सकती थीं । 
  • सूत कातने , बरतन बनाने के लिए मिट्टी को साफ़ करने और गूँधने , और कपड़ों पर कढ़ाई जैसे दस्तकारी के काम उत्पादन के ऐसे पहलू थे जो महिलाओं के श्रम पर निर्भर थे ।
  • किसी वस्तु का जितना वाणिज्यीकरण होता था , उसके उत्पादन के लिए महिलाओं के श्रम की उतनी ही माँग होती थी । दरअसल , किसान और दस्तकार महिलाएँ ज़रूरत पड़ने पर न सिर्फ़ खेतों में काम करती थीं बल्कि नियोक्ताओं के घरों पर भी जाती थीं और बाज़ारों में भी ।
  • चूँकि समाज श्रम पर निर्भर था , इसलिए बच्चे पैदा करने की अपनी क़ाबिलियत की वजह से महिलाओं को महत्त्वपूर्ण संसाधन के रूप में देखा जाता था । 
  • फिर भी शादी शुदा महिलाओं की कमी थी क्योंकि कुपोषण , बार - बार माँ बनने और प्रसव के वक़्त मौत की वजह से महिलाओं में मृत्युदर बहुत ज्यादा था । 
  • इससे किसान और दस्तकार समाज में ऐसे सामाजिक रिवाज पैदा हुए जो संभ्रांत समूहों से बहुत अलग थे । कई ग्रामीण संप्रदायों में शादी के लिए " दुलहन की कीमत " अदा करने की ज़रूरत होती थी , न कि दहेज की । 
  • तलाकशुदा महिलाएँ और विधवाएँ दोनों ही कानूनन शादी कर सकती थीं ।
  • महिलाओं की प्रजनन शक्ति को इतनी अहमियत दी जाती थी कि उस पर काबू खोने का बड़ा डर था । स्थापित रिवाजों के मुताबिक घर का मुखिया मर्द होता था । इस तरह महिला पर परिवार और समुदाय के मर्दों द्वारा पुरज़ोर काबू रखा जाता था बेवफ़ाई के शक पर ही महिलाओं को भयानक दंड दिए जा सकते थे ।
  • राजस्थान , गुजरात और महाराष्ट्र आदि पश्चिमी भारत के इलाकों से मिले दस्तावेजों में ऐसी दरख्वास्त मिली हैं जो महिलाओं ने न्याय और मुआवज़े की उम्मीद से ग्राम पंचायत को भेजी थीं । 
  • पत्नियाँ अपने पतियों की बेवफ़ाई का विरोध करती दिखाई देती हैं या फिर गृहस्थी के मर्द पर ये आरोप लगातीं कि वे पत्नी और बच्चों की अनदेखी करता है । 
  • मर्दों की बेवफ़ाई हमेशा दंडित नहीं होती थी , लेकिन राज्य और " ऊँची " जाति के लोग अकसर ये सुनश्चित करने की कोशिश करते कि परिवार के भरण - पोषण का इंतज़ाम हो जाए । 
  • ज्यादातर , जब महिलाएँ पंचायत को दरख्वास्त देतीं , उनके नाम दस्तावेजों में दर्ज नहीं किए जाते : दरख्वास्त करने वाली का हवाला गृहस्थी के मर्द / मुखिया की माँ बहन या पत्नी के रूप में दिया जाता था । 
  • भूमिहर भद्रजनों में महिलाओं को पुश्तैनी संपत्ति का हक़ मिला हुआ था । पंजाब से ऐसे उदाहरण मिलते हैं जहाँ महिलाएँ ( विधवा महिलाएँ भी ) पुश्तैनी संपत्ति के विक्रेता के रूप में ग्रामीण ज़मीन के बाज़ार में सक्रिय हिस्सेदारी रखती थीं । 
  • हिंदू और मुसलमान महिलाओं को ज़मींदारी उत्तराधिकार में मिलती थी जिसे बेचने अथवा गिरवी रखने के लिए वे स्वतंत्र थीं । बंगाल में भी महिला ज़मींदार पाई जाती थीं । 
  • अठारहवीं सदी की सबसे बड़ी और मशहूर ज़मींदारियों में से एक थी राजशाही की ज़मींदारी जिसकी कर्ता - धर्ता एक स्त्री थी ।


⊕ जंगल और कबीले बसे हुए गाँवों के परे 

  • ग्रामीण भारत में बसे हुए लोगों की खेती के अलावा भी बहुत कुछ था । उत्तर और उत्तर - पश्चिमी भारत की गहरी खेती वाले प्रदेशों को छोड़ दें तो ज़मीन के विशाल हिस्से जंगल या झाड़ियों ( खरबंदी ) से घिरे थे । 
  • ऐसे इलाके झारखंड सहित पूरे पूर्वी भारत , मध्य भारत , उत्तरी क्षेत्र ( जिसमें भारत - नेपाल के सीमावर्ती इलाके की तराई शामिल हैं ) , दक्षिणी भारत का पश्चिमी घाट और दक्कन के पठारों में फैले हुए थे । 
  • हालाँकि इस काल में अखिल भारतीय स्तर पर जंगलों के फैलाव का औसत निकालना लगभग असंभव है , फिर भी समसामयिक स्रोतों से मिली जानकारी के आधार पर ये अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि यह औसत करीब - करीब 40 फ़ीसदी था । 
  • समसामयिक रचनाएँ जंगल में रहने वालों के लिए जंगली शब्द का इस्तेमाल करती है । लेकिन जंगली होने का मतलब सभ्यता का न होना बिलकुल नहीं था , वैसे आजकल इस शब्द का प्रचलित अर्थ यही है ।
  • उन दिनों इस शब्द का इस्तेमाल ऐसे लोगों के लिए होता था जिनका गुज़ारा जंगल के उत्पादों , शिकार और स्था होता था । ये काम मौसम के मुताबिक के तौर पर भीलों में , बसंत के मौसम में जंगल के उत्पाद इकट्ठा किए जाते , गर्मियों में मछली पकड़ी जाती , मानसून के महीनों में खेती की जाती , और शरद व जाड़े के महीनों में शिकार किया जाता था ।
  • यह सिलसिला लगातार गतिशीलता की बुनियाद पर खड़ा था और इस बुनियाद को मज़बूत भी करता था । लगातार एक जगह से दूसरी जगह घूमते रहना इन जंगलों में रहने वाले कबीलों की एक खासियत थी ।
  • जहाँ तक राज्य का सवाल है , उसके लिए जंगल उलट फेर वाला इलाका था : बदमाशों को शरण देने वाला अड्डा ( मवास ) । एक बार फिर हम बाबर की ओर देखते हैं जो कहता है कि जंगल एक ऐसा रक्षाकवच था " जिसके पीछे परगना के लोग कड़े विद्रोही हो जाते थे और कर अदा करने से मुकर जाते थे ।

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