शासक और इतिवृत्त Most Important Questions ||

शासक और इतिवृत्त Most Important Questions ||

इतिहास कक्षा 12th के इस अध्याय में काफी विद्यार्थियों को परेशानी होती है क्योंकि इस अध्याय में बहुत से महत्वपूर्ण टॉपिक है अब विद्यार्थियों को यह परेशानी होती है कि उन्हें लगता है इनमें से कौन सा टॉपिक इंपॉर्टेंट है ?? 

इसी परेशानी के चलते हमने आपके लिए ऐसे प्रश्न का चुनाव किया है जिसमें से परीक्षा में अधिकतर प्रश्न पूछे जाते हैं तो आपको कम से कम इन टॉपिक्स को अवश्य पूरा करना है  बाकी जानकारियां आपको समय के साथ साथ आगे दी जाएगी।।

(शासक और इतिवृत्त)

मुगल साम्राज्य के शासक स्वयं को एक विशाल और विजातीय जनता पर शासन के लिए नियुक्त मानते थे.
मुगल शासकों ने अपना राजवंश का इतिहास दरबारी इतिहासकारों द्वारा लिखवाया.
इन विवरणों से बादशाह के समय की घटनाओं का लेखा जोखा मिलता है.
इन लेखकों ने उपमहाद्वीप के अन्य क्षेत्रों की कई जानकारी.
इकठ्ठा की यह जानकारी शासक के लिए शासन में मदद करती थी.
अंग्रेजी में लिखने वाले आधुनिक इतिहासकारों ने इस शैली को
क्रॉनिकल्स ( इतिहास या इतिवृत ) नाम दिया.
मुगल काल के इतिहास को लिखने में यह इतिवृत्त काफी सहायक स्रोत है.

इतिवृत्त की रचना

मुगल बादशाहों द्वारा तैयार कराए गए इतिवृत्त.
मुगल साम्राज्य तथा उनके दरबार के अध्ययन के महत्वपूर्ण स्रोत है.
शासक यह चाहते थे कि भावी पीढ़ियों के लिए उनके शासन का विवरण उपलब्ध रहे.
दरबारी इतिहासकार.
मुगल इतिवृत्त को लिखने वाले लेखक दरबारी लेखक होते थे.
इन्होंने जो इतिहास लिखा उसके केंद्र बिंदु में.
शासक या शासक से जुड़ी घटनाएं, शाही परिवार.
दरबार, अभिजात वर्ग, युद्ध, प्रशासनिक व्यवस्थाएं होती थी.
अकबरनामा.
शाहजहानमा.
आलमगिरनमा.
तुर्की से फारसी की ओर.
मुगल दरबारी इतिहासकार फारसी भाषा में लिखे गए थे.
लेकिन जब दिल्ली सल्तनत के सुल्तानों का शासन था.
उस काल में उत्तर भारतीय भाषा विशेषकर हिंदवी एवम् फारसी में लिखे गए.
बाबर के ने अपनी कविताएं एवम् संस्मरण तुर्की भाषा में लिखी.
अकबर ने फारसी को दरबार की मुख्य भाषा बनाया.
अकबर के समय में फारसी को दरबार की भाषा का ऊंचा स्थान दिया गया.
उन लोगों को शक्ति और प्रतिष्ठा प्रदान की गई जिनकी इस भाषा पर अच्छी पकड़ थी.
राजा तथा शाही परिवार के लोग और दरबार के विशेष सदस्य यही भाषा बोलते थे.
आगे चलकर यह सभी स्तरों पर प्रशासन की मुख्य भाषा बन गई.
इसे लेखाकारों ने, लिपिकों ने और अन्य अधिकारियों ने भी सीख लिया.
लेकिन जहां पर फारसी प्रत्यक्ष प्रयोग में नहीं थी.
वहां पर राजस्थानी मराठी एवं तमिल भी फारसी के मुहावरे एवं शब्दावली ने प्रभावित किया.
17 वीं शताब्दी तक फारसी बोलने वाले लोग अलग-अलग क्षेत्रों में आ गए थे.
वह अन्य भारतीय भाषा भी बोलते थे.
इस तरह स्थानीय मुहावरों का समाविष्ट करने में फ़ारसी का भी भारतीय करण हो गया.
फारसी एवं हिंदवी के साथ पारस्परिक संपर्क से उर्दू के रूप में एक नई भाषा निकल आई.
अकबरनामा फारसी भाषा में लिखा गया है.
जबकि बाबरनामा तुर्की भाषा में था.
लेकिन बाबरनामा का भी फारसी में अनुवाद किया गया.
मुगल बादशाहों ने महाभारत और रामायण जैसे संस्कृत के ग्रंथों को भी फारसी भाषा में अनुवादित किए जाने का आदेश दिया.
महाभारत का अनुवाद रज्मनामा ( युद्धों की पुस्तक ) के रूप में हुआ.

पांडुलिपियों की रचना

पांडुलिपि ( manuscript ) - हाथ से लिखी पुस्तक होती है.
मुगल भारत की सभी पांडुलिपियों के रूप में मिली हैं.
पांडुलिपि की रचना का मुख्य केंद्र शाही किताब खाना था.
शाही किताब खाने में पांडुलिपियों को लिखा जाता था.
एवं उनको संग्रह कर के रखा जाता था.
नई पांडुलिपियों की रचना की जाती थी.
पांडुलिपि की रचना में अलग-अलग प्रकार के कार्य करने वाले बहुत से लोग शामिल होते थे
जैसे –
कागज बनाने वाले, पांडुलिपि के पन्ने तैयार करने.
सुलेख की पाठ की नकल तैयार करना.
कोफ्तगार की पृष्ठ को चमकाने के लिए.
चित्रकार
जिल्दसाज़
एक पांडुलिपि को तैयार करने में कई वर्ष लग जाते थे.
तैयार पांडुलिपि को एक बहुमूल्य वस्तु , बौद्धिक संपदा और सौंदर्य.
के कार्य के रूप में देखा जाता था.
एक पांडुलिपि को बनाने में कई प्रकार के लोग मेहनत करते थे.
परंतु पदवी और पुरस्कार कुछ ही लोगों को मिलता था.
जैसे –
सुलेखक और चित्रकारों को उच्च सामाजिक प्रतिष्ठा मिली.
जबकि अन्य जैसे.
कागज बनाने वाले जिल्दसाज यह गुमनाम.
कारीगर बनकर ही रह गए.
सुलेखन हाथ से लिखने की कला अत्यंत महत्वपूर्ण कौशल माना जाता था.
इसका प्रयोग अलग अलग शैलियों में होता था.
अकबर को नस्तलिक शैली पसंद थी.

अकबरनामा और बादशाहनामा

अकबरनामा और बादशाहनामा दोनों ही पांडुलिपियों में अधिक चित्र मिलते है.
प्रत्येक पांडुलिपि में औसतन 150 पूरे या दोहरे पृष्ठों पर लड़ाई, शिकार.
इमारत-निर्माण, घेराबंदी , दरबारी दृश्य आदि के चित्र मिलते हैं.
अकबरनामा के लेखक अबुल फजल हैं.
अबुल फजल को अरबी, फारसी, यूनानी दर्शन और सूफीवाद की जानकारी थी.
अबुल फजल एक प्रभावशाली स्वतंत्र चिंतक था.
उसने लगातार दकियानूसी उलमा के विचारों का विरोध किया.
अबुल फजल के इन गुणों से अकबर बहुत प्रभावित हुआ.
उसने अबुल फजल को अपना सलाहकार और अपनी नीतियों के प्रवक्ता के
रूप में उपयुक्त पाया.
दरबारी इतिहासकार के रूप में अबुल फजल ने अकबर के शासन से जुड़े विचारों को लिखा.
अबुल फजल ने अकबरनामा की शुरुआत 1589 में की.
और इस पर 13 वर्षों तक कार्य किया इसमें कई सुधार भी किये.
अकबरनामा को 3 जिल्द ( भाग ) में विभाजित किया गया.
जिनमें से प्रथम दो इतिहास है.
और तीसरी जिल्द आईन - ए- अकबरी है.
पहली जिल्द में आदम से लेकर अकबर के जीवन के एक खगोलीय कालचक्र तक का मानव जाति का इतिहास है.
दूसरी जिल्द अकबर के 46 वें शासन वर्ष 1601 पर खत्म होती है.
उसके बाद अबुल फसल की हत्या.
अकबर के बेटे सलीम द्वारा तैयार किए गए षड्यंत्र के
द्वारा बीर सिंह बुंदेला द्वारा की जाती है.

आईन-ए- अकबरी

मुगल साम्राज्य को एक मिश्रित संस्कृति वाले साम्राज्य के रूप में प्रस्तुत किया गया.
यहां हिंदू , जैन, बौध, मुसलमान रहते थे.
अबुल फजल की भाषा बहुत अलंकृत थी.
इस भाषा के लिए पथों को ऊंची आवाज में पढ़ा जाता था.
अतः इस भाषा में लय और कथन-शैली को बहुत महत्व दिया जाता था.
इस भारतीय फारसी शैली को दरबार में संरक्षण मिला.
बादशाह नामा के लेखक अब्दुल हमीद लाहौरी है.
अब्दुल हमीद लाहौरी अबुल फजल का शिष्य था.
इसकी योग्यता के बारे में सुनकर शाहजहां ने इसे.
अकबरनामा के नमूने पर.
अपने शासन का इतिहास लिखने के लिए नियुक्त किया.
बादशाहनामा भी सरकारी इतिहास है.
इसकी तीन जिल्दें हैं.
प्रत्येक जिल्द 10 चंद्र वर्षों का ब्यौरा देती है.
लाहोरी ने बादशाह के शासनकाल के पहले दो दशको पर पहला और
दूसरा दफ्तर लिखा है.
इन जिल्दों में बाद में शाहजहां के वजीर सादुल्लाह खान ने सुधार किया
जब अंग्रेज आए.
उन्होंने भारतीय साम्राज्य को समझने के लिए यहां के इतिहास का बेहतर ढंग अध्ययन किया.
1784 में सर विलियम जॉन्स में एशियाटिक सोसाइटी ऑफ़ बंगाल.
की स्थापना की.
एशियाटिक सोसाइटी ऑफ़ बंगाल में कई भारतीय पांडुलिपियों के.
संपादन, प्रकाशन और अनुवाद का जिम्मा अपने ऊपर ले लिया.
बीसवीं शताब्दी के आरंभ में.
हेनरी बेवरिज द्वारा अकबरनामा का अंग्रेजी में अनुवाद किया गया.

सुलह - ए - कुल

मुगल इतिवृत साम्राज्य को हिन्दुओं, जैनों, जरथूष्टियों और मुसलमानों.
जैसे अनेक अलग-अलग धार्मिक समुदायों को समाविष्ट किए हुए.
साम्राज्य के रूप में प्रस्तुत करता है.
बादशाह इन सभी धार्मिक समूहों से ऊपर होता था.
इन समूहों के बीच मध्यस्थता कराता था.
यह सुनिश्चित करता था कि न्याय और शांति बनी रहे.
सुलह ए कुल पूर्ण शांति के आदर्श को प्रबुद्ध शासन की आधारशिला बताता है.
सुलह ए कुल में सभी धर्मों और मतों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता थी.
सुलह ए कुल का आदर्श राज्य नीतियों के जरिए लागू किया गया.
मुगलों के अधीन अभिजात वर्ग मिश्रित किस्म का था.
जैसे उसमें ईरानी, तूरानी, अफगानी, राजपूत, दखनी सभी शामिल थे.
इन सभी को दिए गए पद एवं पुरस्कार पूरी तरह से राजा के प्रति उनकी सेवा
और निष्ठा पर आधारित होते थे.
अकबर ने 1563 में तीर्थ यात्रा कर.
तथा 1564 में जजिया को समाप्त कर दिया.
सभी मुगल बादशाहों ने उपासना स्थलों के निर्माण और रखरखाव के लिए अनुदान दिए.
औरंगजेब ने अपने शासनकाल में गैर मुसलमान पर जजिया फिर से लगा दिया.

पदवियां, उपहार और भेंट

पदवियां
राज्यभिषेक समय या किसी शत्रु पर विजय के बाद मुगल बादशाह विशाल पदवी या ग्रहण करते थे.
मुगल सिक्कों पर बादशाह की पूरी पदवी होती थी.
योग्य व्यक्तियों को पदवी देना मुगल राज्य तंत्र का एक महत्वपूर्ण पक्ष था.
किसी व्यक्ति की उन्नति उसके द्वारा धारण की जाने वाली पदवी से जाने जा सकती थी.
उच्चतम मंत्रियों में से एक को दी जाने वाली आसिफ खा की पदवी का उद्भव पैगंबर शासक सुलेमान के मंत्री से हुआ था.
औरंगजेब ने अपने दो उच्च पदस्थ अभिजात जय सिंह और जसवंत सिंह को मिर्जा राजा की पदवी प्रदान की.
पदवी या तो अर्जित की जा सकती थी या उन्हें पाने के लिए पैसे दिए जा सकते थे.
मीर खान ने अपने नाम में अ अक्षर लगाकर उसे अमीर खान करने के.
लिए औरंगजेब को ₹100000 देने का प्रस्ताव किया था.
अन्य पुरस्कारों में जामा भी शामिल था.
जिसे पहले कभी ना कभी बादशाह द्वारा पहना गया हुआ होता था.
यह राजा के आशीर्वाद का प्रतीक था.
सरप्पा एक अन्य उपहार था.
सरप्पा - सर से पांव तक.
इस उपहार के तीन हिस्से हुआ करते थे.
जामा, पगड़ी और पटका कई बार बादशाह द्वारा रत्न जड़ित आभूषण भी उपहार में दिए जाते थे.
बहुत खास परिस्थितियों में बादशाह कमल की मंजरियों वाला रत्न जड़ित.
गहनों का सेट भी उपहार में देता था.
एक दरबारी भाषा के पास कभी भी खाली हाथ नहीं जाता था.
वह या तो नज्र के रूप में थोड़ा सा धन या.
पेशकश के रूप में मोटी रकम.
बादशाह को पेश करता था.

शाही परिवार

हरम शब्द का प्रयोग मुगलों की घरेलू दुनिया की ओर संकेत करने के लिए होता है.
यह शब्द फारसी से निकला है जिसका तात्पर्य है - पवित्र स्थान.
मुगल परिवार में बादशाह की पत्नियां और उपपत्नियां नजदीकी एवं दूर के रिश्तेदार व महिला एवं गुलाम होते थे.
माता, सौतेली मा, बहन, पुत्री ,बहू, चाची, मौसी, बच्चे आदि.
शासक वर्ग में बहुविवाह प्रथा प्रचलित थी.
राजपूत परिवार एवं मुगल दोनों के लिए.
विवाह राजनीतिक संबंध बनाने एवं मैत्री संबंध स्थापित करने का एक तरीका था.
विवाह में पुत्री को भेंट स्वरूप सामान्यत एक क्षेत्र भी उपहार में दे दिया जाता था.
मुगल परिवार में शाही परिवारों से आने वाली स्त्रियों ( बेगम ) और.
अन्य स्त्रियों ( अगहा ) जिनका जन्म कुलीन परिवार में नहीं हुआ था.
इनमें अंतर रखा जाता था.
दहेज ( मेहर ) के रूप में अच्छा खासा नगद और बहुमूल्य वस्तुएं लेने.
के बाद विवाह करके आई बेगमों को अपने पतियों के.
स्वाभाविक रूप से अगहा की तुलना में अधिक ऊंचा दर्जा और सम्मान मिलता था.
उपपत्नियो ( अगाचा ) की स्थिति सबसे निम्न थी.
इन सभी को नगद मासिक भत्ता तथा अपने अपने दर्जे के हिसाब से उपहार मिलते थे.
यदि पति की इच्छा हो और उसके पास पहले से ही 4 पत्नियां ना हो.
तो अगहा और अगाचा भी बेगम की स्थिति पा सकती थी.
मुगल परिवार में अनेक महिला तथा पुरुष गुलाम भी होते थे.
वे साधारण से साधारण कार्य से लेकर.
कौशल, बुद्धिमत्ता वाले कार्य में निपुण होते थे.
नूरजहाँ के बाद मुगल रानी और राजकुमारियों ने महत्वपूर्ण वित्तीय स्रोतों पर नियंत्रण रखना शुरू कर दिया था.
शाहजहां की पुत्रियों, जहांआरा और रोशनआरा को ऊंचे शाही मनसबदारों.
के समान वार्षिक आय होती थी.
इसके अलावा जहांआरा को सूरत के बंदरगाह नगर जो कि विदेशी व्यापार का केंद्र था.
वहां से राजस्व प्राप्त होता था.
संसाधनों पर नियंत्रण ने मुगल परिवार की महत्वपूर्ण स्त्रियों को.
इमारत एवं बागों का निर्माण का अधिकार दे दिया.
जहांआरा ने शाहजहां की नई राजधानी शाहजहानाबाद की कई वस्तुकलात्मक.
परियोजनाओं में हिस्सा लिया.
शाहजहानाबाद के हृदय स्थल चांदनी चौक की रूपरेखा जहाँआरा ने बनाई थी.
गुलबदन बेगम ने हुमायूंनामा लिखी.
हुमायूंनामा में हमें मुगलों की घरेलू दुनिया की जानकारी मिलती है.
गुलबदन बेगम बाबर की पुत्री, हुमायूं की बहन तथा अकबर की चाची थी.
गुलबदन तुर्की एवं फारसी भाषा में धाराप्रवाह लिख सकती थी.
अकबर ने जब अबुल फजल को अपने शासन का इतिहास लिखने के लिए नियुक्त किया.
उस समय अपनी चाची से बाबर और हुमायूं के समय के संस्मरण को लिपिबद्ध करने का आग्रह किया.

शाही नौकरशाही

भर्ती की प्रक्रिया तथा पद.
मुगल साम्राज्य में शासक केंद्र में होता था.
उसका पूरी सत्ता पर नियंत्रण होता था.
लेकिन शासक अपने साम्राज्य को चलाने के लिए नौकरशाही पर भी निर्भर था.
मुगल साम्राज्य का एक महत्वपूर्ण स्तंभ इसके अधिकारियों का दल था.
जिससे इतिहासकार सामूहिक रूप से अभिजात वर्ग भी कहते हैं.
अभिजात वर्ग में भर्ती विभिन्न नृजातीय तथा धार्मिक समूहों से होती थी.
इसमें यह सुनिश्चित किया जाता था.
कि कोई भी दल इतना बड़ा ना हो जाए कि वह राज्य की सत्ता को चुनौती दे.
मुगलों के अधिकारी वर्ग को गुलदस्ते के रूप में वर्णित किया गया है.
जो वफादारी से बादशाह के साथ जुड़े हुए थे.
अकबर के समय में भी ईंरानी, तूरानी अभिजात वर्ग थे.
इनमे से कुछ हुमायूं के साथ चले गए थे.
1560 से आगे राजपूतों एवम् भारतीय मुसलमानों ने शाही सेवा में प्रवेश किया.
इनमें नियुक्त होने वाला प्रथम व्यक्ति एक राजपूत मुखिया अंबेर का राजा भारमल कछवाहा था.
जिसकी पुत्री से अकबर का विवाह हुआ.
शिक्षा की ओर झुकाव वाले हिंदू जातियों के सदस्यों को भी पदोन्नत किया जाता था.
उदाहरण - अकबर के वित्त मंत्री टोडरमल जो खत्री जाति का था.
जहागीर के शासनकाल में ईरानियों को उच्च पद प्राप्त हुए.
जहांगीर की राजनीतिक रूप से प्रभावशाली रानी नूरजहां ( ईरानी ) थी.
औरंगजेब ने राजपूतों को उच्च पदों पर नियुक्त किया.
फिर भी शासन में अधिकारियों के समूह में मराठे काफी संख्या में थे.
सभी सरकारी अधिकारियों के दर्जे और पद में दो तरह के ओहदे होते थे.
जात और सवार.
जात शाही पदानुक्रम में अधिकारी ( मनसबदार ) के पद और वेतन का सूचक था
सवार यह सूचित करता था कि उससे सेवा में कितने घुड़सवार रखना अपेक्षित था.
सैन्य अभियानों में यह अभिजात अपनी सेनाओं के साथ भाग लेते थे.
प्रांतों में वे साम्राज्य के अधिकारियों के रूप में कार्य करते थे.
प्रत्येक सेना कमांडर घुड़सवारों की भर्ती करता था.
उन्हें हथियार एवं प्रशिक्षण देता था.
घुड़सवारी फौज मुगल सेना का महत्वपूर्ण अंग था.
घुड़सवार सिपाही शाही निशान से दागे गए उत्कृष्ट श्रेणी के घोड़े रखते थे.
निम्न पदों को छोड़कर बादशाह स्वयं सभी अधिकारियों के.
ओहदे, पदवियों का निरीक्षण और बदलाव करता था.
मनसबप्रथा की शुरुआत अकबर ने की.
अभिजात वर्ग के सदस्यों के लिए शाही सेवा शक्ति, प्रतिष्ठा, धन प्राप्त करने का एक जरिया थी.
सेवा में आने का इच्छुक व्यक्ति एक अभिजात के जरिए याचिका देता था.
जो बादशाह के सामने प्रस्तुत की जाती थी.
अगर याचिकाकर्ता योग्य व्यक्ति है तो उसे मनसब प्रदान किया जाता था.
मिरबुक्शी दरबार में बादशाह के दाएं और खड़ा होता था.
तथा नियुक्ति और पदोन्नति के सभी उम्मीदवारों को प्रस्तुत करता था.
जबकि उसका कार्यालय उसकी मुहर व हस्ताक्षर के साथ-साथ.
बादशाह की मुहर व हस्ताक्षर वाले आदेश तैयार करता था.
केंद्र में अन्य महत्वपूर्ण मंत्री भी थे.
दीवान ए आला - वित्तमंत्री.
सद्र - उस - सुदूर - अनुदान का मंत्री.
स्थानीय न्यायाधीश या कार्यों की नियुक्ति का प्रभारी.
तैनात ए रकाब दरबार में नियुक्त अभिजातों का एक ऐसा सुरक्षित दल था.
जिससे किसी भी प्रांत या सैन्य अभियान में नियुक्त किया जा सकता था.
यह बादशाह और उसके घराने की सुरक्षा की जिम्मेदारी भी उठाते थे.
तथा दिन में दो बार सुबह और शाम सार्वजनिक सभा भवन में.
बादशाह के प्रति आत्म निवेदन करने के कर्तव्य से बंधे थे.

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