सहर्ष स्वीकारा है ( सप्रसंग व्याख्या ) ( आरोह- Aroh ) Class 12th Sahars sweekara hai - Easy Explained

सहर्ष स्वीकारा है  ( सप्रसंग व्याख्या ) ( आरोह- Aroh ) Class 12th Sahars sweekara hai - Easy Explained

परिचय

यह कविता कवि के निजी अनुभवों पर आधारित है | 
इस कविता का ‘तुम’ माँ है या पत्नी, प्रेयसी, बहन या कोई और- इसका रहस्य बना हुआ है |
कवि स्वीकार करता है की उसके जीवन में जो भी कमजोरियां या उपलब्धियां हैं उन्हें उसके प्रिय का प्रेम और समर्थन प्राप्त है |

सन्दर्भ :-

प्रस्तुत काव्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘आरोह-भाग -2’ में संकलित कवि गजानन माधव मुक्तिबोध की कविता ‘सहर्ष स्वीकारा है’ से लिया गया है |  

प्रसंग :-

ज़िंदगी में जो कुछ है, जो भी है
सहर्ष स्वीकारा है;
इसलिए कि जो कुछ भी मेरा है
वह तुम्हें प्यारा है।
गरबीली गरीबी यह, ये गंभीर अनुभव सब
यह विचार-वैभव सब
दृढ़ता यह, भीतर की सरिता यह अभिनव सब
मौलिक है, मौलिक है
इसलिए कि पल-पल में
जो कुछ भी जाग्रत है अपलक है-
संवेदन तुम्हारा है !

व्याख्या

इस काव्यांश में कवि अपने रहस्यमय प्रिय को संबोधित करता है,परन्तु स्पष्ट रूप से उसका नाम , लिंग आदि नहीं बताया गया है | अपने प्रिय का प्यार कवि को सब कुछ सहने की क्षमता भी प्रदान करता है |
कवी ने स्पष्ट किया हुआ है कि उसने अभी तक अपने जीवन में जो भी उपलब्धि हासिल की है उसे जो भी कुछ प्राप्त हुआ है उसे उसने खुशी खुशी स्वीकार किया है |
चाहे वह गरीबी हो या अनुभव, विचार, बहार की दृढ़ता हो या अन्दर की तरलता, ये सब उसके लिए नए हैं | 
यह गरीबी गर्वीली है ये अनुभव गंभीर हैं ये विचार वैभवशाली है कभी इन सबको हर्ष के साथ इसलिए स्वीकार कर रहा है क्योंकि वह स्वयं को अपने प्रिय से अलग करके नहीं देख सकता
वह अपने प्रिय से इतना घनिष्ठ रूप से जुड़ा हुआ है कि उसकी खुशी में ही कवि अपनी खुशी देखता है और कवि की प्रिय कवि की सभी स्थितियों को प्यार करती  है |
कवि कहता है कि उसके जीवन में हरपल घटित होने वाली स्थितियां जागृत होने वाली भावनाएँ सभी उसे हर्ष के साथ स्वीकार्य हैं |
क्योंकि उसके साथ कवि की प्रिय की संवेदना जुड़ी है |

प्रसंग :-

जाने क्या रिश्ता है, जाने क्या नाता है
जितना भी उँडेलता हूँ, भर-भर फिर आता
दिल में क्या झरना है?
मीठे पानी का सोता है
भीतर वह, ऊपर तुम
मुसकाता चाँद ज्यों धरती पर रात-भर
मुझ पर त्यों तुम्हारा ही खिलता वह चेहरा है !

व्याख्या

इस काव्यांश में कवि अपने ‘प्रिय’ से स्वयं के संबंधों की व्याख्या करता है |
अपने प्रिय को संबोधित करते हुए कवि कहता है कि मैं नहीं जानता कि मेरे और तुम्हारे बीच प्रेम का क्या संबंध है ? 
किस नाते मैं तुमको इतना चाहता हूँ?  मुझे तो इतना पता है कि मैं इस प्रेम को दिल से जितना व्यक्त करता हूँ और बांटता हूँ उतना ही यह बार बार फिर से भर आता है |
मेरे दिल में प्यार का कोई झरना सा लगता है , जिससे लगातार प्रेम की वर्षा होती रहती है | दिल में प्रेम का कोई मीठा स्रोत है जिससे लगातार प्यार का जल छलकता रहता है | 
मेरे दिल के अंदर तुम्हारा प्यार है और इस प्रेमपूरित हृदय के ऊपर तुम विराजमान हो |
तुम्हारे खिलता हुआ चेहरा मेरे दिल में हमेशा इस प्रकार रहता है जैसे पूर्णिमा का चाँद रात भर आकाश में अपनी चांदनी बिखेरता रहता है | 

प्रसंग :-

सचमुच मुझे दंड दो कि भूलूँ मैं भूलूँ मैं
तुम्हें भूल जाने की
दक्षिण ध्रुवी अंधकार-अमावस्या
शरीर पर, चेहरे पर, अंतर में पा लूँ मैं
झेलूँ मैं, उसी में नहा लूँ मैं

व्याख्या

प्रस्तुत पंक्तियों के माध्यम से कवि यह कहना चाहता है कि प्रिय की आत्मियता एवं पूर्ण समर्पित कोमल भावनाओं से वह इतना विव्हल है की स्वयं को उसका उचित पात्र नहीं समझता |
कवि अपने प्रिय से प्रार्थना करता है कि वह उसे भूल जाना चाहता है | हालांकि उसे भूलना कवि के लिए बहुत बड़ा दण्ड है |
फिर भी वह इस दंड को झेलना चाहता है | कभी चाहता है कि उसका जीवन अपने प्रिय के वीओ के कारण दक्षिणी ध्रुव जैसे अनंत अंधेरे में डूब जाए |
वियोग की गहरी अमावस उसके चेहरे पर, शरीर पर , हृदय में छा जाए |
वह उस वियोग वेदना को भरपूर झेले और उसमें नहा लें |
कारण यह है कि उसका वर्तमान जीवन अपने प्रिय से पूरी तरह घिरा हुआ है |

प्रसंग :-

इसलिए कि तुमसे ही परिवेष्टित आच्छादित
रहने का रमणीय यह उजेला अब
सहा नहीं जाता है।
नहीं सहा जाता है।
ममता के बादल की मँडराती कोमलता-
भीतर पिराती है
कमज़ोर और अक्षम अब हो गई है आत्मा यह
छटपटाती छाती को भवितव्यता डराती है
बहलाती सहलाती आत्मीयता बरदाश्त नहीं होती है !

व्याख्या

प्रिय का प्रेम पूर्ण रूप से उसके ऊपर छाया हुआ | प्रिय के साथ का मनोरम उजाला ,सुखमय साथ अब कवि को सहा नहीं जा रहा |
उसके लिए प्रिय के प्रेम का प्रकाश अब असहनीय हो गया है |
इस अतिशय प्रेम के कारण उसकी आत्मा कमज़ोर और सामर्थ्यहीन हो गयी है |
उसे भविष्य का डर है कि कहीं वह अपने प्रिय को खो न दे | भविष्य की यह आशंका उसे बहुत डराती है और उसके हृदय को बेचैन कर देती है |
इसलिए अब उसे अपने प्रिय का बहलाना सहलाना और रह रह कर अपनापन जतलाना सहन नहीं होता |
वह अब आत्मनिर्भर बनना चाहता है | 

प्रसंग :-

सचमुच मुझे दंड दो कि हो जाऊँ
पाताली अँधेरे की गुहाओं में विवरों में
धुएँ के बादलों में
बिलकुल मैं लापता
लापता कि वहाँ भी तो तुम्हारा ही सहारा है!!
इसलिए कि जो कुछ भी मेरा है
या मेरा जो होता-सा लगता है, होता-सा संभव है
सभी वह तुम्हारे ही कारण के कार्यों का घेरा है, कार्यों का वैभव है
अब तक तो जिंदगी में जो कुछ था, जो कुछ है
सहर्ष स्वीकारा है
इसलिए कि जो कुछ भी मेरा है
वह तुम्हें प्यारा है ।

व्याख्या

इन पंक्तियों में कवि कहना चाहता है की सचमुच मुझे दंड दिया जाए तथा आजतक कवि की ज़िन्दगी में जो भी कुछ था या है उसे कवि ने सहर्ष स्वीकार किया है |
हे प्रिय , तुम सचमुच मुझे दंड दो | मैं पाताल की अंधेरी गुफाओं में , भीषण सुनसान अकेली सुरंगों में , दमघोंटू धुएं के बादलों में विलीन हो जाऊं |
मेरा जीवन घुटन में दबकर समाप्त हो जाए , अकेले पन से पीड़ित हो जाए |
उन पाताली अँधेरों में खो जाने के बाद भी मेरा सहारा तो तुम ही होगी | वहाँ भी तो तुम्हारा ही सहारा है | तुम्हारी यादों का ही सहारा है |
तुम्हारी प्यारी यादें मुझे अकेलेपन में भी खुश रखेंगी |
जो कुछ भी है ,या जो कुछ भी होने की संभावना है वह सब तुम्हारे ही कारण है | मेरा जो कुछ भी प्राप्य है वह तुम्हारे  ही कारण के कार्यों का प्रभाव है |  
अब तक मुझे अपनी ज़िन्दगी में जो कुछ भी प्राप्त हुआ था  या अभी जो कुछ भी प्राप्त है ,सब मुझे सहर्ष स्वीकारा है | इसलिए कि जो कुछ भी मेरा  है ,वह तुम्हें प्यारा है | 
क्योंकि तुमने मेरी सुखद-दु:खद सभी स्थितियों को अपना मानकर प्यार किया है | 

विशेष :-

इस कविता की रचना आत्मकथात्मक शैली में हुई है |
साहित्यिक खड़ी बोली का प्रयोग किया गया है तथा तत्सम और उर्दू शब्दों का सुन्दर प्रयोग किया गया है |
गरबीली-गरीबी में अनुप्रास अलंकार है |
पल-पल में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है |
छंद मुक्त कविता है | 
कवि का प्रिय अज्ञात है, वह कौन है इसका रहस्य बना हुआ है |
संबोधन शैली का सुन्दर प्रयोग देखने को मिलता है |

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